प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव

प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव

प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम
प्रथम विश्वयुद्ध में 36 देशों ने भाग लिया, जिसमें दोनों पक्षों की ओर से लडने वाले सैनिकों की संख्या लगभग छः करोड़ पचास लाख थी, जिसमें से लगभग एक करोड़ तीन लाख सैनिक मारे गये व लगभग दो करोड़ बीस लाख घायल हुए और लगभग सत्रह लाख अपाहिज हो गये। इस युद्ध में सर्वप्रथम हवाई जहाज, टैंक, पनडुब्बी, हवाई बम, जहरीली गैस आदि नवीनतम व आधुनिक हथियार व वस्तुएं प्रयोग में लायी गयीं। यह युद्ध लगभग 4 वर्ष 6 माह तक चला तथा इसकी समाप्ति पर इसके दूरगामी परिणामों ने कालान्तर में विभिन्न देशों के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक जीवन को प्रभावित किया था।

प्रथम विश्वयुद्ध के राजनीतिक परिणाम
  • राजतन्त्रीय सरकारों का पतन - यूरोपीय महाद्वीप के तथा अन्य देशों में प्रचलित एकतन्त्र व राजतन्त्र समाप्त हो गये, जिसमें जर्मनी, आस्ट्रिया, रूस के राजवंश प्रमुख थे। 1923 ई० में टर्की के सुल्तान के गद्दी छोड़ने के साथ ही अस्मानी राजवंश का भी पतन हो गया था। पोलैण्ड, बल्गेरिया, चेकोस्लोवाकिया व फिनलैंड में भी निरंकुश शासन समाप्त हो गया। इंग्लैंड, स्पेन, यूनान व रोमानिया आदि देशों में राजतंत्र सरकारों पर इस युद्ध का कोई प्रभाव तो नहीं पड़ा, किन्तु युद्ध के पश्चात् वहाँ भी प्रजातन्त्रीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी।
  • जनतन्त्रीय भावना का विकास - प्रथम विश्वयुद्ध में केन्द्रीय शक्तियों के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों ने प्रजातन्त्र की भावना को प्रोत्साहित करने की घोषणा की थी। इंग्लैण्ड ने प्रजातन्त्र की रक्षा हेतु तथा अमेरिका ने निरंकुश व प्रतिक्रियावादी सरकारों से विश्व को सुरक्षित रखने तथा प्रजातन्त्र की भावना की रक्षा हेतु युद्ध में भाग लिया था। युद्ध समाप्ति के पश्चात् विभिन्न देशों की राजतन्त्रीय सरकार के पतन का स्थान प्रजातान्त्रिक सरकार ने ले लिया। जर्मनी में जोवर्न-वंश के अन्तिम सम्राट विलियम कैसर द्वितीय के राजसिंहासन छोड़कर हॉलैंड भागने पर वहाँ पर गणतंत्र की स्थापना की गयी साथ ही रूस, आस्ट्रिया, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, लिथूयनिया, फिनलैंड, टर्की आदि देशों में भी गणतन्त्रीय सरकार का गठन हुआ।
  • राष्ट्रीयता की भावना का विकास - प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् सम्पूर्ण यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने के कारण निश्चित किया गया कि किसी देश की सीमाओं का निर्धारण करते समय उस देश की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्परा आदि का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अमेरिकन राष्ट्रपति विल्सन ने भी पेरिस शान्ति सम्मेलन में चौदह-सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए आत्मनिर्णय के सिद्धान्त पर विशेष बल दिया। इसी सिद्धान्त के आधार पर चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, यूगोस्लाविया, पोलैण्ड, फिनलैण्ड, लिथुआनिया, एस्टोनिया व कैटेवियम नामक राज्यों का गठन किया गया। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे राज्य भी थे, जहाँ राष्ट्रीयता व आत्मनिर्णय के सिद्धान्त को लागू न कर अल्पसंख्यकों की भावनाओं की अवहेलना कर उन्हें बहुसंख्यकों की दया पर छोड़ दिया गया, किन्तु राष्ट्रीयता की भावना का संचार होने के कारण इन राज्यों ने विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया।
  • अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास - प्रथम विश्वयुद्ध के विनाशकारी परिणामों से यह परिलक्षित होने लगा कि विश्व में शान्ति व सद्भावना स्थापित करने हेतु पारस्परिक सहयोग व मैत्री आवश्यक है। यूरोपीय देशों में धीरे-धीरे अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा, जिसके आधार पर 1919 ई० में पेरिस शांति सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें भविष्य में विभिन्न देशों की समस्याओं को परस्पर बातचीत के माध्यम से हल करने के लिए एक स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना का निर्णय लिया गया, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रसंघ की स्थापना की गयी!

प्रथम विश्वयुद्ध के सामाजिक परिणाम
  • प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान महिलाओं के कार्य क्षेत्र - प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान महिलाओं के कार्य क्षेत्र का विस्तार हुआ, उनके जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया तथा वे अपने सामाजिक महत्त्व का अनुभव करने लगीं। युद्ध काल के दौरान सैनिकों की मांग व युद्ध सामग्री निर्मित करने वाले उद्योगों में कार्य करने हेतु मजदूरों की माँग में वृद्धि होने के कारण पुरुष अपने कार्य छोड़कर सैनिक सेवा व युद्ध सामग्री के उद्योगों में कार्य करने लगें, पुरुष द्वारा रिक्त किये गये स्थानों पर स्त्रियाँ कार्य करने लगी। स्त्रियों ने आर्थिक विकास में सहयोग देने के साथ-साथ राजनीतिक गतिविधियों में भी भाग लेना शुरू कर दिया। स्त्रियों में आत्मविश्वास व आत्मनिर्णय की भावना जाग्रत होने से वे पुरुषों के समान अधिकार व सुविधाओं की मांग सरकार से करने लगी।
  • 1914 ई. में सभी देश जातीय कटुता व रंगभेद की भावना से ग्रसित थे। इसी आधार पर ग्रेट ब्रिटेन के लोग भारत व अफ्रीकावासियों से घृणा करते थे तथा जर्मन व फ्रेंच जनता स्वयं को अन्य देशों की जनता से श्रेष्ठ समझती थी। विश्वव्यापी स्तर पर लड़े जाने वाले प्रथम विश्वयुद्ध में सभी जातियों के व्यक्तियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया था। अत: जातीय कटुता की भावना को समाप्त करने की दिशा में भी प्रथम विश्वयुद्ध का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
  • युद्ध काल में सैनिकों की मांग बढ़ जाने तथा अनिवार्य सैनिक सेवा के कारण बहुत से विद्यार्थियों ने शिक्षा छोड़ सेना में भर्ती होने का निर्णय किया। विद्यार्थियों की संख्या कम होने से अनेकों शिक्षण-संस्थाएं बन्द हो गयी। इस प्रकार शिक्षा-जगत में सुधार व विकास की आवश्यकता का अनुभव युद्धोतर काल में किया गया।
  • विश्व युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों व अन्य युद्ध-सामग्री के निर्माण के योगदान से श्रमिकों ने देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया तथा युद्ध के पश्चात् उन्होंने सरकार से आवश्यक सुविधाओं की मांग की। विश्वयुद्ध के पश्चात् श्रमिकों ने ट्रेड यूनियनों का सफलतापूर्वक संचालन कर देश के प्रशासन तथा व्यापार व उद्योगों में अपने निश्चित स्थान की मांग की थी।
  • विश्वयुद्ध के बाद ही समाजवाद की भावना का उदय व विकास हुआ, जिसमें उद्योगों का राष्ट्रीयकरण व उन पर राज्य का स्वामित्व सम्मिलित था। औद्योगिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप पहले की अपेक्षा बढ़ जाने से श्रमिक वर्ग के महत्त्व में वृद्धि हुई। सरकारों ने श्रमिकों को आवास, शिक्षा, चिकित्सा तथा अन्य सुविधाएं प्रदान कर उन्हें ट्रेड यूनियन गठित करने व हड़ताल करने का अधिकार भी प्रदान किया था।
  • युद्ध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति व विकास के रूप में परिलक्षित होता है। युद्ध में विध्वंसकारी अविष्कार कर उनका प्रयोग किया गया था। युद्धोपरान्त नवीन अविष्कारों के लिए सभी देशों में प्रतियोगिता की भावना उत्पन्न हो गई। जिससे विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई थी।

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