राज्य की उत्पत्ति के विषय में मनु के विचार

मनु के विचार
‘मनुस्मृति’ के सातवे अध्याय में राजधर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए मनु द्वारा राज्य की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार, सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था बहुत भयंकर थी। उस समय न कोई राज्य था और न राजा तथा इनके अभाव में दण्ड व्यवस्था का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। राज्य और दण्ड व्यवस्था के अभाव में मनुष्यों की आसुरी प्रवृत्तियों को खुलकर खेलकर खेलने का अवसर मिलता था, जिनके परिणामस्वरूप चतुर्दिक अराजकता का अखण्ड साम्राज्य था, चारों ओर भय का वातावरण व्याप्त था और सभी लोग इस स्थिति से त्रस्त थे। ऐसी स्थिति में ईश्वर ने सृष्टि की सुरक्षा के लिए राज्यपति (राजा) की उत्पत्ति की। इस प्रकार मनु ने राज्य की उत्पत्ति के स्थान पर राजा की उत्पत्ति का उल्लेख किया है।

राजा के आवस्यक गुण
राजा का मुख्य कार्य प्रजा की सुरक्षा तथा कल्याण करना होता है, अत: इन कार्यों के कुशल सम्पादन के लिए राजा में कुछ आवश्यक गुणों का समावेश होना आवश्यक है। राजा को विद्वान, जितेन्द्रिय, न्यायी, विनीत एवं लोकप्रिय होना चाहिए। राजा का जितेन्द्रिय होना आवश्यक है अर्थात् राजा इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला होना चाहिए, जिससे वह अधर्म से हटकर धर्म के अनुकूल आचरण कर सके। जो राजा अपनी इन्द्रियों को ही वश में नहीं रख सकता है वह अपनी प्रजा को वश में रखने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकता है। जितेन्द्रिय होने के लिए राजा को योगाभ्यास करते रहना चाहिए और कामवासना से उत्पन्न आठ दुष्ट व्यसनों से बचना चाहिए। जो राजा कामवासनाजन्य व्यंजनों में फँस जाता है, वह धनधान्य तथा धर्म से रहित हो जाता है और जो क्रोध से उत्पन्न बुरे व्यसनों में फँस जाता है, वह प्रकृति के प्रकोप के कारण शरीर से भी वंचित हो जाता है।

राजकाज हेतु आवश्यक गुण और क्षमता प्राप्त करने के लिए वेदों के ज्ञाता वृद्ध ब्राह्मणों की दिन-प्रतिदिन पूजा करनी चाहिए, क्योकि वृद्धों का सम्मान करने से लोकप्रियता और सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है। राजा को सदैव विनीत रहना चाहिए, क्योंकि ऐसे राजा का कभी नाश नहीं होता है।

राज्य और राजनीतिक व्यवस्था में राजा की स्थिति
मनु के अनुसार; राजा सृष्टि की आठ-सूर्य, चन्द्र, यम, कुबेर, इन्द्र, वरूण, पवन और अग्नि-सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्तियों और तत्वों से समन्वित होता है। इन आठ श्रेष्ठ तत्वों से समन्वित होने के कारण राजा विश्व का रक्षक, पोषक एवं समृद्धिकारक होता है। जिस प्रकार ये विशिष्टि शक्तियाँ अपने गुण विशेषों से समस्त सृष्टि पर शासन करती हैं, उसी प्रकार राजा अपनी शक्ति से इस लोक पर शासन करता है। 
मनु का विचार है कि राजा की रचना इन आठ देवताओं के उत्कृष्ट अंशों को लेकर की गई है। इस कारण राजा न केवल एक देवता वरन् इनमें से प्रत्येक देवता से महान है। वह इन आठ प्रमुख देवताओं के तत्वों को धारण करने वाला एक विशिष्ट देवता है। राजा के साथ दिव्य शक्ति के संयोग से मनु यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि राज्य और राजा की शक्ति का अतिक्रमण करना किसी भी व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है तथा इसके गम्भीर दुष्परिणाम हो सकते हैं। मनु ने कहा है, “अग्नि असावधानी से उसे स्पर्श करने वाले व्यक्ति को ही जलाती है, किन्तु राजाग्नि चिर संचित धन-सम्पदा सहित समस्त कुल को ही जला देती है।” इस प्रकार, राजा का शासन मानवीय समझौते पर आधारित न होकर ईश्वरीय इच्छा पर आधारित है और राजा अपने कार्यों के लिए ईश्वर के प्रति ही उत्तरदायी है, न कि प्रजा के प्रति।

राजा के कार्य एवं राज्य का कार्यक्षेत्र
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ और शुक्र के ‘शुक्र नीतिसार’ में राज्य के कार्यक्षेत्र, गतिविधियों और दायित्वों की विवेचना जितने विस्तार के साथ की गई है, यद्यपि ‘मनुस्मृति’ राज्य के कार्यों की वैसी विस्तृत विवेचना प्रस्तुत नहीं कर पाती, परन्तु ‘मनुस्मृति’ में भी राज्य के कार्यक्षेत्र का समुचित वर्णन किया गया है। मनु के अनुसार, राज्य का कार्यक्षेत्र निम्नलिखित गतिविधियों से सम्बन्धित है-

(1) प्रजा रक्षण -मनुस्मृति’ के अनुसार, ‘प्रजा रक्षण’ राज्य का सर्वप्रमुख कर्तव्य है। मनुस्मृति में कहा गया है कि जब चतुर्दिक अराजकता की स्थिति थी और ‘मत्स्य न्याय’ ने जन्म ले लिया था, तब इस स्थिति के प्रतिकार हेतु ब्रह्मा ने राज्य की रचना की। इस प्रकार राज्य की रचना ‘प्रजा रक्षण’ के लिए हुई है और राज्य तथा राजा के अस्तित्व का सर्वप्रमुख औचित्य प्रजा रक्षण ही है। मनु के अनुसार, राज्य के द्वारा आपराधिक प्रवृति वाले लोगों से प्रजा की सुरक्षा की जानी चाहिए। राज्य द्वारा यह कार्य दण्ड-शक्ति के प्रयोग के आधार पर ही किया जा सकता है। शक्तिशाली व्यक्ति निर्बलों के प्रति उचित व्यवहार करे, इसके लिए राजा को आवश्यकतानुसार दण्ड-शक्ति के प्रयोग के लिए तत्पर रहना चाहिए। मनु का विचार है कि दण्ड के माध्यम से बलशाली व्यक्तियों को निर्बल व्यक्तियों पर अत्याचार करने से रोका जा सकता है तथा राज्य में अनाचार, व्यभिचार, चोरी-डकैती आदि को नियन्त्रित किया जा सकता है।

आपराधिक तत्वों से प्रजा की सुरक्षा करने के साथ-साथ बाहरी आक्रमण से राज्य की सुरक्षा करना भी राज्य का अनिवार्य और महत्वपूर्ण दायित्व है। इस प्रसंग में मनु की दृष्टि बहुत विवेकपूर्ण है। युद्ध से प्रजा को हानि होने की आशंका रहती है, अत: मनु राजा को परामर्श देता है कि युद्ध की स्थिति को अनिवार्य होने पर ही अपनाया जाना चाहिए तथा जब युद्ध अवश्यम्भावी हो जाए तो युद्ध की समस्त रीति-नीति ऐसी व्यवस्थित होनी चाहिए जिससे कि प्रजा को उससे न्यूनतम हानि होने की ही सम्भावना रहे। इस प्रकार मनु के ‘प्रजा-रक्षण’ के अन्तर्गत बाह्म आक्रमण से राज्य की रक्षा तथा आन्तरिक क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करना दोनों ही बातें आ जाती हैं।

(2) प्रजा पालन या लोक-कल्याण - प्रजा का निरन्तर और धैर्यपूर्वक पालन करना राज्य का अनिवार्य दायित्व है और राजा प्रजा के प्रति अपने इस दायित्व का पालन करे, तब ही वह प्रजा से कर तथा उनसे आज्ञाकारिता प्राप्त करने का न्यायपूर्ण अधिकारी होता है। मनु के अनुसार, राजा का दायित्व है कि वह प्रजा के लिए चोरों पुरुषोर्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - की सिद्धि में सहायक हो। 

मनु ने शासन को परामर्श दिया है कि वह समय-समय पर प्रजा के सुख-दु:ख की जानकारी प्राप्त करता रहे तथा ऐसी व्यवस्था करे कि आवश्यकता की विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ प्रजाजन को निरन्तर प्राप्त होती रहें।

मनु का विचार है कि समाज के विभिन्न वर्गों को आवश्यकता और पात्रता के अनुसार सहायता और दान देना राजा का कर्तव्य है। ब्राह्मणों को राजकीय अनुदान देना मनु विशेष रूप से आवश्यक मानते हैं, जिससे ब्राह्मण वर्ग अपने जीवन-निर्वाह की चिन्ता से मुक्त होकर अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों का विकास कर सके तथा उनका उपयोग सम्पूर्ण समाज के लौकिक और पारलौकिक कल्याण के लिए चिन्तन - मनन में कर सके।

मनु के अनुसार, राज्य को सन्तानविहीन स्त्रियों, विधवाओं तथा रोगग्रस्त स्त्रियों की देखभाल करनी चाहिए। स्त्रियो की सम्पत्ति को हड़पने वालों को बहुत कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति लापता हो गए हैं राज्य को उनकी सम्पत्ति अपने संरक्षण में ले लेनी चाहिए और जब ये प्रकट हों तो उनकी सम्पत्ति लौटा दी जानी चाहिए।

(3) प्रशासनिक व्यवस्था का निर्वाह - राजा प्रजा के प्रति अपने दायित्वों को पूरा कर सके, इसके लिए मनु सुसंगठित और सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था को अनिवार्य मानता है। विभिन्न प्रशासनिक दायित्वों के निर्वाह हेतु राजा के द्वारा योग्य व्यक्तियों को अधिकारी और कर्मचारी पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए। राजा को सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य कर्मचारी प्रजा के प्रति अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक पालन करें, इसके लिए राजा को गुप्तचरों के माध्यम से इन अधिकारियों के कार्यों की जानकारी प्राप्त करते रहना चाहिए। जो अधिकारी प्रजा से अनुचित रूप से धन ले या भ्रष्ट आचरण करे, उसे राज्य से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। 

(4) अर्थव्यवस्था का संचालन और नियन्त्रण - मनु प्रजा के जीवन में अर्थ के महत्व को स्वीकार करता है तथा उसका विचार है कि प्रजा की भौतिक और आर्थिक समृद्धि के लिए प्रयत्न करना प्रजा का परम कर्तव्य है। राजा के द्वारा कृषि उत्पादन और व्यापार के संचालन की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए तथा प्रजा को उनकी सम्पत्ति एवं समृद्धि की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त किया जाना चाहिए। राज्य व्यापारियों के हितों की सुरक्षा के लिए भी सम्भव कदम उठाए, लेकिन साथ ही वह व्यापारियों द्वारा प्रजा के प्रति किए जा सकने वाले आर्थिक अपराधों; यथा - मिलावट, कम तौलना और अधिक मूल्य लेना आदि; से प्रजा की सुरक्षा करे।

(5) सामाजिक व्यवस्था का नियमन और निर्वाह - ‘मनुस्मृति’ में सामाजिक व्यवस्था का नियमन और निर्वाह भी राज्य का दायित्व माना गया है। ‘मनुस्मृति’ में समस्त समाज को चार वर्गो-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-में विभाजित किया गया है। राज्य से यह अपेक्षा की गई है कि वह समाज में प्रत्येक वर्ण के सदस्य द्वारा उसके निर्धारित कर्तव्यों के पालन को सुनिश्चित करे। विभिन्न वर्गों, विशेषतया वैश्य और शूद्रों से उनके कर्तव्यों का पालन कराने हेतु राज्य दण्ड की बाध्यकारी शक्ति का प्रयोग कर सकता है। इसी प्रकार, मनु ने प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास-की व्यवस्था की है। सभी व्यक्ति आश्रम व्यवस्था का निर्वाह करते हुए जीवन व्यतीत करें, यह देखना राज्य का दायित्व है। 

(6) परराष्ट्र सम्बन्धों का संचालन – मनु ने परराष्ट्र सम्बन्धों के विवेकपूर्ण संचालन को राज्य के आवश्यक कार्यों में सम्मिलित किया है। बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा राज्य का एक अनिवार्य दायित्व है; अत: मनु का विचार है कि परराष्ट्र सम्बन्धों के संचालन में शासक ऐसी युक्ति और विवेक के आधार पर कार्य करे कि अनावश्यक युद्ध की उलझन में पड़े बिना ही राज्य तथा उसके सम्मान की सुरक्षा सम्भव हो सके। मनु ने अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों के संचालन के लिए एक सैद्धान्तिक रूपरेखा प्रस्तुत की है तथा शासक को इस सम्बन्ध में मण्डल सिद्धान्त, षाङगुण्य नीति तथा उपायों के विवेकसम्मत पालन हेतु निर्देश दिया है। इन सबके अतिरिक्त मनु का विचार है कि राजा को अश्वमेध, विश्वजीत आदि, यज्ञ करवाने चाहिए। मुख्य बात यह है कि राजा के द्वारा अपनी प्रजा के प्रति पिता सदृश व्यवहार किया जाना चाहिए, क्योकि प्रजा का पालन करना राजा का श्रेष्ठ धर्म और प्रजापालन द्वारा शास्त्रोक्त फल को भोगने वाला राजा धर्म में युक्त होता है। इस प्रकार मनु के अनुसार, राज्य का कार्यक्षेत्र बहुत अधिक व्यापक है। केवल मोटवानी के अनुसार, “मनु के निर्देशन में राज्य द्वारा बनाए जाने वाले अनेक कानून वर्तमानकालीन राजशास्त्र के विद्यार्थी को समाजवादी प्रतीत होंगे।'' 

वस्तुत: मनु द्वारा चित्रित राज्य एक लोक-कल्याणकारी राज्य है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त कर लेने का अवसर मिलता है।

निरंकुश राजा
मनु ने राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है तथा उसने राजा में दिव्यता की कल्पना भी की है, लेकिन मनु की विचारधारा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रतिपादित दैवी सिद्धान्त तथा उनके द्वारा राजा की निरंकुशता पर बल दिए जाने से भिन्न है। पाश्चात्य विद्वानों ने राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए राजा को निरंकुश सत्ता प्रदान की है। उदाहरण के लिए, इस सिद्धान्त के आधार पर ही फ्रांस या राजा लुई चौदहवाँ कहा करता था, मैं ही राज्य हूँ, मेरी इच्छा ही कानून है। मैं इस पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर शासन करता हूँ।” किन्तु मनु ने राजा को ऐसी निरंकुश सत्ता प्रदान नहीं की है। 

राजा की सत्ता पर नियन्त्रण
मनु ने राजा की सत्ता पर विशेष रूप से निम्नलिखित नियन्त्रणों की व्यवस्था की है।
(1) धर्मगत नियन्त्रण - मनु ने राजा को धर्म के अधीन रखा है और इस बात पर बल दिया है कि राजा सदैव ही प्रजा का पालन तथा उसकी सुरक्षा करे। राजा को दैवी अथवा देवांश बताया गया है किन्तु बल उसके देवत्व पर है न कि उसके अधिकार अथवा चाहे जिस प्रकार शासन करने पर, और देवत्व पर बल देने का तात्पर्य यह है कि राजा के द्वारा दैवीय गणों के आधार पर प्रजा का पालन किया जाना चाहिए। 
राजकीय कर्तव्य की सैद्धान्तिक मीमांसा को मनु ने अपने ग्रन्थ में ‘राजधर्म’ के नाम से परिभाषित किया है। स्वयं धर्म से शासित रहते हुए, प्रजा के व्यवहार में धर्म को सुनिश्चित करना मनु के अनुसार शासक का पवित्र कर्तव्य है और ‘राजधर्म' की अवहेलना करने पर शासक देवत्व से गिर जाता है। मनु शासक पर धार्मिक नियन्त्रण की व्यवस्था करके उसकी स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाते हैं तथा उसे लोकहित में कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध करते हैं। 

(2) संस्थागत नियन्त्रण - राजा की शक्ति पर संस्थागत नियन्त्रण की भी व्यवस्था है। ‘मनुस्मृति’ में स्पष्ट विधान है कि महत्वपूर्ण विषयों के सम्बन्ध में राजा के लिए मन्त्रियों एवं अन्य शासकीय अभिकरणों से मन्त्रणा करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, दूसरे राज्यों में दूत भेजने, भेजे गए दूतों के कार्यों का मूल्यांकन करने, उनके स्थान पर दूसरे दूतों की नियुक्ति करने आदि विषयों पर मन्त्रियों से मन्त्रणा करना आवश्यक माना है। 

‘मनुस्मृति' में कराधान की शासक की शक्ति को नियमों के अधीन माना गया है तथा इन नियमों का उल्लंघन करके अनावश्यक रूप से कर लगाने एवं एकत्रित करने को राजा के विनाश का कारण माना गया है। एक अन्य संस्थागत नियन्त्रण शक्तियों के विकेन्द्रीकरण के रूप में है। मनु ने राष्ट्र के प्रशासन के लिए उसका छोटी इकाइयों में विभाजन तथा शासकीय शक्ति का विकेन्द्रीकरण आवश्यक माना है और स्थानीय प्रशासन के प्रसंग में शासक को असीमित अधिकार नहीं दिए हैं। मनु का विचार है कि शासक की शक्तियों एवं कार्यों के विकेन्द्रीकरण के माध्यम से शासक की निरंकुशता एवं स्वेच्छाचारिता पर प्रभावी अंकुश रखा जा सकता है।

(3) राजा के लिए दण्ड विधान - ‘मनुस्मृति’ में राजा के लिए भी दण्ड का विधान है। राजा विशिष्ट देव होकर भी साधारण प्रजाजन की भाँति दण्ड भोगता है। जिस अपराध में साधारण व्यक्तियों को केवल एक पण का दण्ड दिया जाता है, उसी में राजा को अधिक ज्ञानी होने के कारण सहस्र (एक हजार) पण का दण्ड मिलता है। 

(4) राज्य के व्यक्तिगत गुण, प्रशिक्षण और दिनचर्या - ‘मनुस्मृति’ में राजा के लिए जिन व्यक्तिगत गुणों पर बल दिया गया है तथा उसके लिए जैसे कठोर प्रशिक्षण और कठिन दिनचर्या की व्यवस्था की गई है, उसके आधार पर भी शासक के मर्यादित शासक होने की आशा की जा सकती है। ‘मनुस्मृति’ के अनुसार, राजा को विद्वान, जितेन्द्रिय, न्यायी, विनीत एवं लोकप्रिय होना चाहिए। राजा को कामवासना और क्रोध के सभी रूपों से तथा सभी व्यसनों से पूर्णतया मुक्त रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त राजा के लिए वैसे ही कठोर प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है, जैसे प्रशिक्षण की व्यवस्था प्लेटो अपने दार्शनिक राजा के लिए करता है। 

मूल्यांकन 
इस प्रसंग में मुख्य प्रश्न यह है कि राजा पर प्रजा का प्रभावी नियन्त्रण स्थापित किया गया है अथवा नहीं। विद्वानों के एक समूह का विचार है कि मनु के राजा पर प्रजा का प्रभावी नियन्त्रण नहीं है। राजा प्रजा के प्रति उत्तरदायी नहीं है, लेकिन विद्वानों का एक अन्य वर्ग, जिनमें ‘मनुस्मृति' के एक प्रमुख टीकाकार डॉ० केवल मोटवानी और पाश्चात्य विद्वाना बी०ए० सालेटोर प्रमुख हैं, ने इस बात पर बल दिया है कि मनु का राजा प्रजा के प्रति उत्तरदायी है और जनता राजा को अपदस्थ भी कर सकती है। इन विद्वानों ने इस बात पर बल दिया है कि मनु ने राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त के साथ-साथ समझौता सिद्धान्त की ओर भी संकेत किया है। डॉ० केवल मोटवानी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, “राजा को समझना चाहिए कि वह धर्म के नियमों के अधीन है। कोई भी राजा धर्म के विरुद्ध व्यवहार नहीं कर सकता है। धर्म राजाओं और सामान्य मनुष्यों पर एक समान ही शासन करता है। इसके अतिरिक्त राजा राजनीतिक प्रभु जनता के भी अधीन है। वह अपनी शक्तियों के प्रयोग में जनता की आज्ञापालन की क्षमता से सीमित है।'' इसी प्रकार, सालेटोर ने लिखा है “मनु ने नि:सन्देह यह कहा है कि जनता राजा को गद्दी से उतार सकती है और उसे मार भी सकती है, यदि वह अपनी मूर्खता से प्रजा को सताता है।” 

राजा की स्थिति से यही प्रतीत होता है कि ‘मनुस्मृति’ राजा पर प्रजा का प्रत्यक्ष और तत्काल प्रभावी नियन्त्रण तो स्थापित नहीं करती, लेकिन परोक्ष रूप से राजा के जनता के प्रति उत्तरदायी होने पर बल देती है। इस प्रसंग में हमें इस बात को दृष्टि में रखना होगा कि मनु का युग न केवल भारत वरन् समस्त विश्व में ‘राजतन्त्र (निरंकुश राजतन्त्र) का युग' था तथा उस युग में राजपद पर नियन्त्रणों की व्यवस्था कर मनु ने अपने इस स्पष्ट विचार का परिचय दिया है, “राजसत्ता जनसत्ता की शक्ति को स्वीकार करे, यह बात राजा के पद और राज्य, दोनों के लिए शुभ है।'' 

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