भारतीय शासन व्यवस्था

भारतीय शासन व्यवस्था
भारत सरकार अधिनियम 1858
1857 के विद्रोह के पश्चात् भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त हो गया तथा भारत की सत्ता ब्रिटिश क्राउन के हाथ में सौप दी गई। ब्रिटिश संसद ने भारत में शासन के संचालन हेतु 'भारत सरकार अधिनियम 1858 पारित किया। इस अधिनियम के द्वारा भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन को दे दिया गया। इस अधिनियम द्वारा भारत में एक पूर्णत: केन्द्रीकृत शासन प्रणाली की स्थापना की गयी जिसमें भारतीय जनता की कोई भूमिका नहीं थी। इस अधिनियम के अन्तर्गत ऐसे नियम बनाये गये जिनके आधार पर भारत का शासन चलाया गया। इसके द्वारा विधायी, कार्यपालिका तथा वित्तीय तीनों ही शक्तियाँ भारत सचिव के हाथ में केन्द्रित हो गयी। भारत सचिव ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का सदस्य होता था। भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक परिषद की व्यवस्था की गयी जिसे 'भारत परिषद' के नाम से जाना जाता था। भारत परिषद में कुछ सदस्यों को सम्राट मनोनीत करता था तथा अन्य सदस्यों को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के निदेशक मनोनीत करते थे। ये सभी अंग्रेज होते थे।

भारत सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था। भारत सचिव गर्वनर जनरल के माध्यम से भारत का शासन करता था। गवर्नर-जनरल जिसे वायसराय भी कहा जाता था भारत में ब्रिटिश सरकार का सर्वोच्च प्रतिनिधि था। गवर्नर जनरल की सहायता के लिए एक कार्यकारी परिषद की व्यवस्था थी जिसमें सरकार के उच्च अधिकारी होते थे। यह परिषद भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी होती थी।

भारत सरकार अधिनियम 1858 के अन्तर्गत देश कई प्रान्तों में विभाजित था। प्रत्येक प्रान्त में एक गवर्नर अथवा लेफ्टिनेंट गवर्नर या एक मनुष्य आयुक्त की नियुक्ति होती थी। ये गवर्नर जनरल के नियन्त्रण तथा निर्देशन में कार्य करते थे तथा उसी के प्रति उत्तरदायी थे। प्रान्तों में गवर्नर या लेफ्टिनेंट की सहायता हेतु एक कार्यकारी परिषद थी। प्रत्येक प्रान्त में कई जिले थे। प्रत्येक जिला एक अधिकारी के अधीन था जो प्रान्तीय प्रशासन के प्रति उत्तरदायी था। प्रान्तीय प्रशासन भारत सरकार के प्रति उत्तरदायी था तथा भारत सरकार भारत सचिव के प्रति उत्तरादायी थी।
भारत में सभी शक्तियाँ गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद में निहित थी जो पूर्ण रूप से भारत सचिव के नियन्त्रण में थे।

1858 के अधिनियम के मुख्य लक्षण
  • देश का शासन पूर्ण रुप से केन्द्रीकृत था। देश को विभिन्न प्रान्तों में विभाजित किया गया जिसका सर्वोच्च अधिकारी गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर होता था जिसकी सहायता के लिए एक कार्यकारी परिषद थी। यें प्रांतीय सरकारें भारत सरकार की एजेन्ट मात्र थी। यें गवर्नर जनरल के नियन्त्रण व निर्देशन में कार्य करती थी।
  • शक्तियों का पृथक्करण नहीं था। सभी शक्तियाँ सिविल, विधायी, कार्यपालिका आदि गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारी परिषद में निहित थी जो भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी थे।
  • भारत के प्रशासन पर पूर्ण रूप से भारत सचिव का नियन्त्रण था। भारत सचिव भारत का प्रशासन अपने अभिकर्ता गवर्नर जनरल के माध्यम से चलाता था। भारत सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। 
  • प्रशासन में भारतीय जनता की कोई भूमिका नहीं थी। प्रशासन नौकरशाही के नियन्त्रण में था।

1861 के भारतीय कौंसिल एक्ट
1861 का भारतीय कौंसिल कानून भारत के संवैधानिक विकास में एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है। इस कानून के द्वारा अंग्रेजों ने भारत में एक नई नीति आरम्भ की जिसे उदार निरकुंशता या सहयोग की नीति का नाम दिया गया। इस कानून की विशेषताएँ हैं
  • भारतीय परिषद कानून 1861 के द्वारा कानून निर्माण के उद्देश्य से गवर्नर की कौंसिल का विस्तार किया गया। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गयी कि गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद जब कानून निर्माण का कार्य करेगी अर्थात् विधान परिषद के रूप में विधायी कार्य करेगी तो उसमें 6 से 12 अन्य सदस्य शामिल किये जायेगें। उनमें कम से कम आधे गैर सरकारी लोग होने चाहिये। गैर सरकारी सदस्य भारतीय या अंग्रेज कोई भी हो सकते थे। इनका कार्यकाल दो वर्ष था। यह विधान परिषद न तो जनता का प्रतिनिधित्व करती थी तथा न ही इसके पास कोई शक्ति थी। सदस्य मनोनीत किये जाते थे तथा उनका कार्य वायसराय द्वारा उनके समक्ष रखे गये विधायी प्रस्तावों पर विचार करने तक ही सीमित था। वह सरकार की किसी भी आधार पर आलोचना नहीं कर सकती थी। वायसराय इनकी राय को ठुकराने का अधिकार रखता था। विधायी परिषद को वायसराय की पूर्व-अनुमति के बिना किसी भी महत्वपूर्ण कार्यवाई पर विचार-विमर्श करने का अधिकार नहीं था। वित्तीय कार्यवाहियों पर तो उसे विचार करने का कोई अधिकार नहीं था।
  • वायसराय को आवश्यकता पड़ने पर अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया था। 
  • विधायी परिषद द्वारा पारित विधेयक पर गवर्नर जनरल को वीटो करने का अधिकार था।
  • 1861 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों को स्थानीय या प्रान्तीय विषयों के सम्बन्ध में कानून निर्माण का अधिकार दिया गया। इस कार्य हेतु गवर्नर को यह अधिकार दिया गया कि वह अपनी कार्यकारी परिषद में चार से आठ सदस्यों की नियुक्ति कर सकता था परन्तु इनमें से कम से कम आधे सदस्यों का गैर सरकारी होना आवश्यक था। प्रान्तों द्वारा पारित प्रत्येक कानून पर गवर्नर-जनरल की स्वीकृति आवश्यक थी।
1861 के अधिनियम द्वारा केन्द्र तथा प्रान्तों में जिस प्रकार की विधायी परिषदों की व्यवस्था की गयी न तो उनके पास कोई शक्ति थी तथा न ही उनका संगठन उचित था। इनमें जो गैर सरकारी भारतीय सदस्य मनोनीत किये गये वे भारतीय जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। मनोनीत करते समय गवर्नर जनरल राजाओं, जमींदारों आदि को चुनता था। इनके पास कोई विशेष शक्ति भी नहीं थी। इनका कार्यकारिणी के ऊपर कोई नियन्त्रण नहीं था। महत्वपूर्ण विषयों पर ये वाद विवाद भी नहीं कर सकते थे। इनके द्वारा दिये गये परामर्श को प्रान्तों में गवर्नर तथा केन्द्र गवर्नर जनरल अस्वीकार कर सकता था।

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