सुभाष चन्द्र बोस का जीवन परिचय

सुभाष चन्द्र बोस

सुभाष चन्द्र बोस
सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 ई. को उड़ीसा के कटक नगर में हुआ में था। वे एक समृद्ध एवं उच्च शिक्षित परिवार में जन्मे थे। उनकी शिक्षा भी उच्च स्तर की एवं आधुनिक पद्धति के अनुसार कराई गई थी। उन्होंने 1913 ई. में मिशनरी स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1919 ई. में बी० ए० ऑनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् उन्होंने ब्रिटेन से आई० सी० एस० की परीक्षा उत्तीर्ण की और भारत में आकर उच्च पद पर आसीन हो गए। परन्तु अंग्रेजी शासकों द्वारा देश पर किए जाने वाले अत्याचारों व भेदभाव होने के कारण उन्होंने अपना उच्च पद त्याग दिया और देश-सेवा में जुट गए।

सुभाषचन्द्र बोस ने राष्ट्रीय आन्दोलन में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आर० सी० मजूमदार के शब्दों में, "गांधी जी के बाद भारतीय स्वतन्त्रता संघर्ष में सबसे प्रमुख व्यक्ति सुभाष चन्द्र बोस ही थे।"

आजाद हिन्द फौज का गठन
आजाद हिन्द फौज (I.N.A.) का जन्म खुद में कोई स्वतन्त्र घटना नहीं थी। यह उस समय प्रक्रिया का एक नतीजा था। जो भारतीय सैनिकों में राष्ट्रभक्ति को प्रज्वलित कर रही थी। 1857 ई. के पहले महान राष्ट्रीय विप्लव को जन्म देने में पहल सैनिकों के द्वारा की गयी थी। 1947 ई. की आजादी के पूर्व की अन्तिम महत्वपूर्ण लड़ाई शाही नौ-सेना में (R.I.N.) में विप्लव भी सैनिको का कार्य था। इन दोनों घटनाओं के मध्य अप्रैल 1930 ई. में पेशावर रेजीमेंट में सैनिकों ने चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इन्कार कर मानवता, साम्प्रदायिकता सद्भाव, देशभक्ति एवं सच्चे शौर्य का वास्तविक प्रदर्शन किया। आजाद हिन्द फौज और उसका संघर्ष भी इसी शानदार परम्परा का एक भाग था।

आजाद हिन्द फौज व सुभाष चन्द्र बोस 
आजाद हिन्द फौज का नाम सुभाष चन्द्र बोस से जुड़ा हुआ है, इसकी स्थापना का श्रेय भारतीय सेना के अधिकारी कैप्टेन मोहनसिंह को जाता है। जब जापानी सेना ने मलाया पर विजय प्राप्त की तो जिन सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया उनमें कैप्टेन मोहन सिंह भी थे कैप्टेन राष्ट्रप्रेमी थे तथा युद्धवादी भारतीय सैनिकों को अपने साथ लेकर उन्होने आजाद हिन्द फौज का गठन किया था। अगस्त 1942 तक इस फौज में 16000 सैनिकों की एक फौज तैयार की गयी थी। मोहन सिंह का लक्ष्य इस सेना का और अधिक विस्तार करना था, किन्तु इस प्रश्न पर उनका जापानियों और रासबिहारी बोस से मतभेद हो गये। इन मतभेदों के चलते जापानियों ने मोहन सिंह को नजरबंद कर दिया। पूरी सम्भावना थी कि मोहन सिंह के मंच से हटने के साथ ही आजाद हिन्द फौज के इतिहास का अध्याय भी समाप्त हो जायेगा, किन्तु इसी समय सुभाष के पूर्व एशिया में पहुँचने से इतिहास में नया मोड़ आ गया।

सुभाष एक महान देशभक्त थे। वह प्रत्येक घटना पर दृष्टि से विचार करते थे। 1938 से ही जब विश्व युद्ध की सम्भावना दिखने लगी तो सुभाष का विचार बन गया कि इस युद्ध का लाभ भारत की आजादी प्राप्त करने के लिये उठाया जाना चाहिये। अपनी इस विचारधारा के साथ सुभाष ने युद्ध आरम्भ होते ही देश की जनता से अपील की कि वह युद्ध में अंग्रेजों की किसी तरह से सहायता न करें तथा अपने दल फारवर्ड ब्लाक के नेतृत्व में उन्होंने 6 अप्रैल 1930 को सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया था

इन सभी मान्यताओं के चलते ही 17 जनवरी 1941 को साम्राज्यवादी पुलिस की आँखों में धूल झोक कर सुभाष चन्द्र बोस भारत से निकल गये थे। वह काबुल व मास्को होते हुये 28 मार्च को बर्लिन पहुचें। उन्होंने जर्मन सरकार के सामने प्रस्ताव रखा कि उन्हे बर्लिन रेडियो से ब्रिटिश विरोधी प्रचार करने दिया जाये, युद्ध बन्दी भारतीय सैनिको को लेकर सेना का गठन करने दिया जाये तथा जर्मनी और उसके मित्र भारत की स्वतंत्रता की घोषणा करें। सुभाष की पहली दो बातें स्वीकार कर ली गई तथा जनवरी 1942 तक यूरोप में भारतीय सेना की दो टुकड़ियों का गठन हो गया। किन्तु भारत की स्वतंत्रता में जर्मनी ने कोई रूची नहीं दिखाई। इससे सुभाष को निराशा हुई। इसी समय दक्षिण पूर्व एशिया में 28-30 मार्च के टोकियो सम्मेलन द्वारा रासविहारी बोस ने एक 'इण्डियन इंडिपेंडेंस लीग' का गठन किया तथा भारतीय मुक्ति सेना के गठन का निर्णय लिया। टोक्यो सम्मेलन के फैसलों की पुष्टि बैंकाक सम्मेलन 15-22 जून 1942 में की गई तथा सुभाष चन्द्र बोस को नवगठित लीग की अध्यक्षता के लिये आमन्त्रित किया गया था। हिटलर से निराश होकर सुभाष चन्द्र बोस ने 8 फरवरी 1943 को जर्मनी को छोड़ दिया था। एक रोमांचक समुद्री व हवाई यात्रा के उपरान्त 13 जून को सुभाष चन्द्र बोस टोकियो पहुँचे तथा जापान भारत को स्वतन्त्र कराने में पूर्ण सहयोग देने का वचन दिया 4 जुलाई को सिंगापुर में सुभाष ने लीग की अध्यक्षता को ग्रहण किया तथा आजाद हिन्द फौज की कमान संभाली। सुभाष चन्द्र बोस ने सेना को "दिल्ली चलो" युद्ध का नारा दिया।

सुभाष की सरकार ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में, हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में, 'जय हिन्दं' अभिवादन के रूप में तथा टैगोर की कविता को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया। अंडमान और निकोबार टापू भारतीय भूमि का वह भाग थे जिन पर आजाद हिन्द सरकार को सबसे पहले अधिकार मिला। यह टापू जापानियों ने इस सरकार को सौंप दिये।

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