भारत विभाजन के क्या कारण थे

भारत विभाजन के कारण

भारत विभाजन के कारण
भारत के राष्ट्रीय नेताओं व जनता देश के विभाजन के पक्ष में नहीं थी, परन्तु मुस्लिम लीग द्वारा सन् 1939 के आरम्भ से ही घोर साम्प्रदायिकता को अपनाया गया था जिसके परिणामस्वरूप देश के किसी न किसी कोने में मुस्लिमों के मध्य साम्प्रदायिकता का विष व्याप्त हो गया। दूसरी ओर, मुस्लिम लीग ने मुसलमानों को इस प्रकार के अत्याचारपूर्ण कार्य करने के लिये उकसाया राष्ट्रीय कांग्रेस भी अब लीग के कार्यों से दुःखी होकर इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी थी कि यदि लीग केवल पाकिस्तान से ही सन्तोष करती है, तो फिर देश का विभाजन होना ही है। इस स्थिति का सामना करने के लिये हिन्दू जनमत पहले से ही तैयार था क्योंकि लीग व मुसलमानों के अत्याचार पराकाष्ठा पर थे। परन्तु सन् 1946 तक भारत विभाजन अनिश्चय की स्थिति में था इस सन्दर्भ में मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं के मस्तक पर इस कलंक को लगाते हुये कहा है, "नेहरू व पटेल ने लार्ड माउंटबेटन के विचार को ग्रहण किया। कांग्रेस को इस कार्य के लिये इन्होंने ही मनाया।" परन्तु इस विषय में इस इन्द्र विद्यावाचस्पति का कथन अधि सत्यतापूर्ण लगता है। वे लिखते हैं कि, "यह ऐतिहासिक तथ्य है कि उस समय आवश्यक समझकर कांग्रेसी नेताओं ने विभाजन के साथ स्वाधीनता को स्वीकार किया। यदि यह स्वीकृति न देती तो क्या परिणाम होता? इस प्रश्न का उत्तर इतिहास की सीमाओं से बाहर है।" परन्तु जिस आकस्मिक ढंग से सन् 1947 में भारत का विभाजन हुआ वह आशा के प्रतिकूल था। यह एक ऐतिहासिक बाध्यता थी। इस विभाजन के निम्न कारण थे
  • अंग्रेजों की 'फूट डालो व राज करो' की नीति - फूट डालो व राज करो, भारत में अंग्रेजी साम्राज्य को बनाये रखने की ब्रिटिश सरकार की प्रमुख नीति थी। जिस भारत में हजारों वर्षों से हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ भाई के समान रहते आये थे उन दोनों के बीच धर्म के उन्माद को फैलाकर अंग्रेजों ने इनको एक-दूसरे के खून का प्यासा बना दिया था। मुस्लिम लीग को ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुओं के विरुद्ध बराबर भड़काया व सरकारी संरक्षण दिया। सर्वप्रथम लार्ड मिन्टो ने साम्प्रदायिकता प्रतिनिधित्व को स्वीकार करके राष्ट्र के जीवन में जहर घोल दिया था। इसका परिणाम पाकिस्तान के रूप में हमारे सामने आया। इस विषय में मेहता व पटवर्धन लिखते हैं, " पाकिस्तान बनाने का विचार आंग्ल-भारतीय नौकरशाही के लिये नया नहीं था!" अंग्रेजों में पाकिस्तान बनाने के प्रति बहुत अधिक उत्साह था। मुसलमानों को तो केवल माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया गया। भारत में 'फूट डालो व शासन करो' की नीति के अन्तर्गत पाकिस्तान के निर्माण का बीज अंग्रेजों के मस्तिष्क की उपज थी। एडवर्ड थॉमसन लिखते हैं कि, " कतिपय सरकारी पदाधिकारी पाकिस्तान निर्माण को व्यावहारिक रूप देने के प्रति सचेत व उत्साहपूर्ण थे।"
  • हिन्दुओं का मुसलमानों के प्रति तिरस्कारपूर्ण व्यवहार - अंग्रेजों का मुसलमानों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार आरम्भ में तो नहीं था, परन्तु लीग द्वारा बराबर सरकारी भक्ति भाव व कांग्रेस के विरोध की नीति का अंग्रेजों के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा जिससे धीरे-धीरे अंग्रेजी सरकार का रुख भी लीग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण होता चला गया। मुसलमानों का अंग्रेजों के प्रति शीघ्र झुकाव इसलिये भी हुआ कि राष्ट्रीय जीवन में हिन्दू मुसलमानों के साथ अपमानजनक व्यवहार करते थे हिन्दू मुसलमानों के शरीर छू जाने को पाप मानते थे तथा सामाजिक जीवन में मुसलमानों को गंदा, माँस खाने वाले, रूढ़िवादी, निर्दयी, अनपढ़ व नीचे कहकर उनका अपमान किया जाता था इसलिये मुसलमानों के मन में हिन्दुओं की इस नीति से क्षोभ व घृणा पैदा हो गयी थी। अंग्रेजों की इस जातिभेद-नीति ने आग में घी का काम किया।
  • हिन्दू साम्प्रदायिकता की विषैला प्रभाव - भारत विभाजन के लिये कुछ सीमा तक हिन्दू साम्प्रदायिकता भी उत्तरदायी रही है हिन्दू महासभा जो हिन्दुओं की एकमात्र संस्था थी, अपने प्रारम्भिक काल में पंडित मदनमोहन मालवीय व लाल लाजपतराय के नेतृत्व में कांग्रेस की एक सहायक संस्था थी परन्तु 1932 के बाद इस संस्था पर कट्टर विचारधारा वाले तत्त्वों ने आधिपत्य जमा लिया। सन् 1934 के अहमदाबाद हिन्दू महासभा सम्मेलन में वीर सावरकर ने अध्यक्षता करते हुये कहा था, "भारत एक ओर एक सूत्र में बँधा राष्ट्र हो नहीं सकता; अपितू यहाँ हिन्दू व मुसलमान दो राष्ट्र विद्यमान हैं।" मुसलमानों में असंतोष व आक्रोश हिन्दू साम्प्रदायिकता से उत्पन्न होना स्वाभाविक था। दूसरी ओर मुसलमान भी अपनी जातीय एकता बनाने के लिये प्रेरित हुए इसके लिये उन्होंने इस्लाम व धार्मिक संकीर्णता का सहारा लिया वस्तुत: इस दूषित विचार को हिन्दू महासभा ने विशाल वृक्ष का रूप धारण करने में बड़ी मदद की। 
  • कांग्रेस की लीग के प्रति व्यावहारिक भूलें - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लीग के प्रति कुछ बड़ी भारी भूले की जिनके कारण लीग के प्रभाव व हठधार्मिता में वृद्धि हुई। यह भी भारत विभाजन का एक कारण बना। सन् 1916 में कांग्रेस ने लीग से समझौता करके बड़ी भारी गलती की। इसके पश्चात तो इन गलतियों की पुनरावृत्ति होती ही चली गयीं, जैसे सन् 1919 में कांग्रेस ने असहयोग के साथ-साथ खिलाफत आन्दोलन को अपनाया। यह उसकी दूसरी बड़ी भूल थी। कांग्रस की तीसरी गलती यह थी कि सन् 1932 में कांग्रेस द्वारा साम्प्रदायिक निर्णय को स्वीकार कर लिया गया।
  • जिन्नाह की धौसंपट्टी व हठधर्मिता - कांग्रेस द्वारा सिद्धांतों के नाम पर जिन्ना में सुलह का प्रयास करने की नीति का प्रतिफल यह हुआ कि जिन्ना ने मौके का अधिक से अधिक लाभ उठाने की चेष्टा की। इससे इनमें हठधर्मिता आ गयी और अपनी जिद को पूरा करने के लिये कांग्रेस को धौंस देने लगे। उन्होंने सन् 1939 में 'मुक्ति दिवस' मनाने की घोषणा की थी। राजा ने चौदह मांग प्रस्तुत की जो उसकी हठधर्मिता, वैवेल योजना, कैबिनेट मिशन योजना आदि ऐसी सभी योजना असफल हो गई। जोकि तत्कालीन भारतीय समस्या का वास्तविक हल खोजने के प्रयास थे। जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग के अंतिरिक्त अन्य किसी भी विचार को स्वीकार नहीं किया। 

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