पानीपत के तीसरे युद्ध का कारण

पानीपत के तीसरे युद्ध का कारण
पानीपत के तीसरे युद्ध का कारण

1. मराठों की रुहेलों पर विजय - 1751 ई० में अवध के नवाब सफदरजंग ने रुहेलों के विरुद्ध मराठीं से सहायता ली। मराठों ने रुहेलखण्ड को पूर्णतः विजित कर लिया तथा वहाँ चौथ एकत्रित करनी प्रारम्भ कर दी। रुहेले अफगान अहमदशाह अब्दाली से सम्बन्ध रखते थे। अतः अब्दाली ने मराठों को सीधा करने का निश्चय कर लिया।

2. मराठी का हिन्दू-स्वराज्य का आदर्श - बाजीराव, जोकि एक महान् पेशवा था, ने देशव्यापी हिन्दू-स्वराज्य स्थापित करने का लक्ष्य निश्चित किया था; अत: मुसलमानों का उसके विरुद्ध होना स्वाभाविक था। आन्तरिक रूप से सब मुसलमान मराठों के उत्थान से ईर्ष्या करते थे। वे निरन्तर उन्हें परास्त करने की योजना बना रहे थे।

3. बालाजी बाजीराव की अदूरदर्शिता - बालाजी बाजीराव अपने पिता के समान योग्य तथा दूरदर्शी नहीं था। उसकी योजनाएँ अदूरदर्शितापूर्ण थी। तथा नीति सुविचारित नहीं थी। उसने राजपूतो, सिक्खों तथा जाटों को असन्तुष्ट कर लिया जिनके सहयोग के विना विदेशियों को देश से निष्कासित करना सर्वथा असम्भव था। हिन्दुओं के इस पारस्परिक वैमनस्य ने अफगानों को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित कर दिया।

4. मराठों का दिल्ली पर अधिकार - 1757 ई० में मराठा सरदार रघुनाथ राव ने दिल्ली पर अधिकार करके सम्राट की नाममात्र की सत्ता भी उससे छीन ली। अब्दाली के प्रिय नजीब-उद्-दौला को अति कठोर शतों पर अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया। अतः अब्दाली का क्रोध अनिवार्य था क्योंकि उसके अपने प्रिय प्रतिनिधि नजीब को निर्वासित कर दिया गया था। नजीब ने अब्दाली को भारत पर एक अन्य आक्रमण करने के लिए निमन्त्रित किया।

5. मराठों का पंजाब पर अधिकार - दिल्ली पर आक्रमण करने के पश्चात मराठा सेनापति रघुनाथ राव पंजाब की ओर अग्रसर हुआ। 1758 ई० में मराठों ने तैमूरशाह को पंजाब से निर्वासित कर दिया जोकि अब्दाली का पुत्र तथा पंजाब का वायसराय था। उन्होंने एक स्थानीय सरदार अदीना बेग खाँ को पंजाब का गवर्नर नियुक्त कर दिया। पंजाब का अभियान मराठों की भारी भूल थी। यह अभियान न केवल बहुत महँगा पड़ा, अपितु इससे अब्दाली के साथ मराठों का युद्ध अनिवार्य हो गया।

6. अदीना बेग की मृत्यु - दुर्भाग्य से पंजाब के सूबेदार अदीना बेग की मृत्यु उसी वर्ष हो गई तथा पंजाब में अराजकता फैल गई। पेशवा ने दत्ताजी सिन्धिया को शान्ति स्थापित करने के लिए भेजा जिसने साबाजी सिंधिया को 1759 ई० में पंजाब का वायसराय नियुक्त कर दिया इससे अब्दाली और क्रोधित हो गया था उसने एक विशाल अफगान सेना के साथ भारत की ओर प्रस्थान कर दिया।

पानीपत युद्ध की घटनाएँ 
अब्दाली ने पंजाब पर नवम्बर, 1759 ई० में आक्रमण कर दिया तथा मराठों को पंजाब छोड़ने पर विवश कर दिया। भारतीय रूहेलो ने अब्दाली की सहायता के लिए 30,000 सैनिकों की सेना एकत्र कर ली। दत्ताजी सिंधिया का थानेश्वर के स्थान पर पराजय हुई तथा वह दिल्ली की ओर लौट पड़ा।

अफगानों तथा मराठों में एक अन्य युद्ध 1760 ई० में बरारी घाट के स्थान पर हुआ। मराठों का सेनापति दत्ताजी सिंधिया मारा गया था मराठे तितर वितर हो गये। मल्हारराव होल्कर तथा जानकोजी सिंधिया भी अब्दाली को अग्रसर होने से रोकने में असमर्थ रहे।

अफगानों के विरुद्ध मराठों की पराजय से पेशवा बालाजी बाजीराव भयभीत हो गया तथा उसने अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ को अफगानों के विरुद्ध भेजने का निर्णय किया जिसने 1760 ई० में निजाम को पराजित करके मराठों की सत्ता तथा ख्याति में वृद्धि की। उसने राजपूतों तथा जाटों को भी सहायता के लिए बुलाया तथा वे विशाल सेनाओं के साथ उसके साथ आ मिले। पेशवा ने अपने पुत्र विश्वास राव को नाममात्र का सेनानायक बनाकर भाऊ के साथ भेजा यद्यपि वास्तविक सत्ता भाऊ के हाथ में ही रही। उसने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया भाऊ ने 22 अगस्त, 1760 ई० को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। सम्राट को पदच्युत कर दिया गया तथा विश्वास राव को सिंहासन पर आसीन कर दिया गया। दुर्भाग्यवश भाऊ तथा जाटों के शासक सूरजमल में कुछ मतभेद उत्पन्न हो गया। फलतः जाटों ने मराठों का साथ छोड़ दिया तथा होल्कर भी पृथक् हो गया। भाऊ ने अब पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में अब्दाली से युद्ध करने का निश्चय किया। अब्दाली को रूहेले अफगानों तथा अवध के नवाब की सहायता प्राप्त हो गई। उसकी कुल सेना 60,000 थी। 7 अक्टूबर, 1760 ई० को कुंजपुर के स्थान पर मराठों और अफगानों में युद्ध हुआ था मराठों को सफलता प्राप्त हुई। इस सफलता से मराठों को कुछ समय के लिए रसद और धन प्राप्त हो गया। अफगान पानीपत की ओर हट गए। मराठों ने उनका पीछा किया, परन्तु अब्दाली ने कुंजपुर की असफलता के बाद भी तुरन्त आक्रमण करने का निश्चय किया।

दोनों सेनाएँ आमने-सामने डट गई तथा लगभग एक माह तक कोई भी पक्ष दूसरे पर आक्रमण न कर सका, यद्यपि दोनों ओर से छुटपुट हमले होते रहे। इस समय में अब्दाली मराठों की रसद काटने में सफल हो गया, अतः वे आक्रमण करने पर विवश हो गए और उन्होंने 14 जनवरी, 1761 ई० को अब्दाली पर आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ, परन्तु अहमदशाह अधिक योग्य सेनापति सिद्ध हुआ। लगभग आठ घण्टे के घमासान युद्ध के पश्चात् मराठों की पराजय हुई। सदाशिवराव भाऊ, विश्वास राव, जानकोजी सिंधिया तथा जसवन्तराव पँवार जैसे मराठा सेनापति युद्ध में काम आए। मराठों का तोपची इब्राहीम खाँ गार्दी मारा गया तथा महादाजी सिंधिया जीवन भर के लिए लँगड़ा हो गया। इस पराजय ने मराठों की बढ़ती हुई सत्ता पर रोक लगा दी तथा पेशवा की शक्ति को भी आघात पहुँचा। इस विनाश के शोक को सहन न कर सकने के कारण उसी वर्ष उसकी मृत्यु हो गई।

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