औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल इतिहास

औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल इतिहास
मार्च, 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगल इतिहास ने एक नया मोड़ लिया। औरंगजेब के समय तक मुगल साम्राज्य अपने विकास की चरम सीमा तक पहुंच गया था। परन्तु उसकी मृत्यु के साथ ही उसके उत्तराधिकारियों के समय में शक्तिशाली एवं वैभवशाली साम्राज्य का विघटन और पतन तेजी से हुआ। उसकी मृत्यु के पचास वर्षों के भीतर ही भारत में अनेक नई शक्तियाँ क्षेत्रीय राज्य स्थापित करने में सफल हुई, भारत पर विदेशी आक्रमण हुए, मुगल सम्राट की शक्ति एवं प्रतिष्ठा नष्ट हो गई, मुगल दरबार गुटबाजी और षड्यन्त्रों का अखाड़ा बन गया। इसका लाभ उठाकर अंततः ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में अपना शासन स्थापित करने में सफल हुई।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल इतिहास
1857 ई० के विद्रोह का नेतृत्व के अपराध में अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह 'जफर' को गद्दी से हटाकर अंग्रेजों ने भारत में मुगलों की सत्ता समाप्त कर दी तथा भारत को ब्रिटिश ताज का एक उपनिवेश बना दिया।

उत्तराधिकार का युद्ध
औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही उत्तराधिकार का युद्ध आरम्भ हो गया। औरंगजेब के पाँच पुत्र थे-सुलतान मुहम्मद, मुअज्जम, आजम, अकबर और कामबख्श। सुल्तान मुहम्मद की मृत्यु 1676 तथा अकबर की मृत्यु 1704 में हो चुकी थी। औरंगजेब की मृत्यु के समय मुअज्जम काबुल, आजम गुजरात तथा कामबख्श बीजापुर का सूबेदार था। औरंगजेब ने वसीयत में तीनों पुत्रों को आपस में साम्राज्य का बँटवारा शान्तिपूर्ण ढंग से कर लेने का सुझाव दिया था, परन्तु तीनों ने ही इसे अस्वीकार कर दिया। जहाँगीर के समय से ही गद्दी प्राप्त करने के लिए तलवार का सहारा लेने की जो परिपाटी चली आ रही थी उसे रोकना अब असम्भव था। तीनों शहजादे गद्दी पर अधिकार करने के लिए तैयार हो गये तीनों ने ही अपने-अपने को सम्राट घोषित कर दिया। तीनों ने अपना-अपना राज्याभिषेक किया। कामबख्श ने दीनपनाह' की उपाधि धारण की तथा अपने नाम के सिक्के जारी किये। औरंगजेब के अन्य दोनों पुत्र आगरा पर अधिकार करने के लिए आगे बढे। कामबख्श बीजापुर छोड़ने की स्थिति में नहीं था। आजम (आजमशाह) और मुअज्जम (बहादुरशाह अथवा शाहआलम प्रथम ) में मुअज्जम की स्थिति आजम से अच्छी थी। वह दिल्ली और आगरा पर अधिकार करने में सफल हुआ। उसने आजम के समक्ष साम्राज्य के बँटवारे का प्रस्ताव भी रखा, जिसे आजम ने ठुकरा दिया। अत: दोनों के मध्य संघर्ष आवश्यक हो गया। जून, 1707 में आगर के निकट दोनों भाइयों की मुठभेड़ जाजौ नामक स्थान पर हुई। आजम युद्ध में मारा गया। अब मुअज्जम प्रमुख था मालवा को सूबेदार निजाम-उल मुल्क। उसने षड्यन्त्र रचकर हुसन अली की हत्या उस समय करवा दी, जब वह बादशाह को अपने साथ लेकर दक्षिण की ओर निजाम- उल-मुल्क के विरुद्ध बढ़ा। अपने भाई की हत्या की सूचना पाकर अब्दुल्ला ने दिल्ली में शहजादा इब्राहिम को गद्दी पर बैठा दिया। इस बीच मुहम्मद शाह अमीन खाँ के साथ वापस। दिल्ली लौटा। उसने बिलोचपुर के निकट अब्दुल्ला को युद्ध में पराजित कर उसे गिरफ्तार कर लिया (1720 ई०)। कारागार में ही बाद में उसकी हत्या कर दी गई।

मुहम्मदशाह अब सैयदबन्धुओं के प्रभाव से मुक्त हो गया। उसने पहले अमीन खाँ तथा बाद में निजाम-उल-मुल्क को अपना वजीर नियक्त किया, परन्तु निजाम कुछ समय बाद ही दक्कन वापस चला गया। मुहम्मद शाह के समय में सम्राट की शक्ति एवं प्रतिष्ठा पुनः स्थापित हुई। परन्तु वह प्रशासन, दरबार अथवा साम्राज्य पर अपना नियन्त्रण स्थापित नहीं कर सका। साम्राज्य के विभिन्न भागों में लगातार विद्रोह हुए, जिन्हें वह दबा नहीं सका। उसके समय में हैदराबाद अवध बंगाल स्वतन्त्र हो गये और मराठों जाटों, सिखों, रुहेलों ने अपनी शक्ति बढ़ा ली। उसी के समय में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण कर मुगल साम्राज्य की खोखली जड़ों पर तीव्र आघात किया। मुगल साम्राज्य के पतन की गति और तीव्र हो गई।

अहमदशाह (1748-54 ई०) - अहमदशाह के समय में मुगल सत्ता और अधिक सकुचित हो गई। आन्तरिक प्रशासन नष्ट हो गया, राज्य में अशान्ति और अव्यवस्था व्याप्त हो गई। बादशाह का अधिकार दिल्ली के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गया। अहमदशाह में राज्य की गिरती अवस्था को नियन्त्रण में रखने की न तो क्षमता थी और न इच्छा थी। उसका सारा समय भोग-विलास में व्यतीत होता था इसलिए दरबार में गुटबाजी और दलबन्दी बढ़ गई। ईरानी और तुरानी सरदारों के आपसी संघर्ष ने स्थिति और दयनीय कर दी। मराठों ने दिल्ली में अपना प्रभाव बढ़ा लिया। मुगल बादशाह की दयनीय स्थिति को देखते हुए अहमदशाह अब्दाली ने भी भारत पर आक्रमण किया तथा पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त एवं पंजाब में अपना अधिकार बढ़ा लिया। इन परिस्थितियों में वजीर इमाद-उल-मुल्क ने जून, 1754 ई० में अहमदशाह को गद्दी से उतार दिया। उसे अन्धा बनाकर कारागार में डाल दिया गया।

आलमगीर द्वितीय (1754-59 ई०) - अब अजीजुद्दीन को आलमगीर द्वितीय के नाम से गद्दी पर बिठाया गया। वह भी एक अयोग्य और निकम्मा शासक प्रमाणित हुआ। उसके समय में वास्तविक शक्ति वजीर इमाद-उल-मुल्क के हाथों में ही सुरक्षित रही, आलमगीर उसके हाथों की कठपुतली बना रहा। वजीर ने अपने हितों की सुरक्षा के लिए बादशाह पर अत्याचार किए। उसे आवश्यक खर्च भी नहीं दिये गये। उसकी स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। वजीर के अत्याचारों से बचाने के लिए उसने अपने पुत्र अलीगौहर को पूर्वी प्रान्तों में भेज दिया। मराठे इस समय अधिक शक्तिशाली हो गये। उनकी कार्यवाहियों से क्रुद्ध होकर अब्दाली ने 1757 ई० में दिल्ली पर आक्रमण कर इसे जी-भर लूटा। आलमगीर उसे धन देकर ही अपनी प्रतिष्ठा एवं प्राणों की रक्षा कर सकता। अब्दाली के वापस जाने के बाद वजीर इमाद-उल-मुल्क ने नवम्बर, 1759 ई० में आलमगीर की हत्या करवा दी।

शाहआलम द्वितीय (1759-1806 ई०) - अलीगौहर की हत्या के पश्चात् मुगल सत्ता नाममात्र की रह गई। वजीर इमाद-उल-मुल्क ने कामवख्श के पौत्र मुहीउल-मिल्लत को शाहजहाँ तृतीय के नाम से गद्दी पर बिठाया, लेकिन दरबारियों ने उसे मान्यता प्रदान नहीं की। इस बीच अलीगौहर ने बिहार में अपने आपको सम्राट घोषित कर अपना राज्याभिषेक करवाया। उसने शाहआलम द्वितीय की उपाधि धारण की। दिल्ली पर मराठों के नियन्त्रण, अहमदशाह

अब्दाली के आक्रमण और वजीर इमाद-उल-मुल्क के भय से सम्राट बनकर भी वह दिल्ली आने को तैयार नहीं हुआ। वह बिहार से शासन करने लगा। दिल्ली का राजसिंहासन खाली रहा। इस पर वजीर का ही अधिकार रहा। 1761 ई० में घटनाक्रम तेजी से चलने लगा। पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय हुई, शाहआलम भी अंग्रेजों से पराजित हुआ। बक्सर के युद्ध में पराजित होकर उसे बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को देनी पड़ी और वह स्वयं ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी का पेंशनभोक्ता बना दिया गया। मुगल राजनीति पर अब अंग्रेज भी हावी होने लगे। यद्यपि 1772 ई० में वह मराठों के संरक्षण में दिल्ली आने और गदी पर बैठने में सफल हुआ परन्तु उसकी स्थिति दिनों दिन कमजोर पड़ गई। उसे मीरबख्शी गुलाम कादिर ने अन्धा कर गिरफ्तार कर लिया (1787 ई०) तथा वेदारबख्श को बादशाह बनाया। शाहआलम महादजी सिंधिया की सहायता से पुनः गद्दी प्राप्त करने में सफल हुआ। दुवारा शासक बनकर उसने अंग्रेजों की सहायता से मराठों से मुक्ति पाई एवं अंग्रेजों का पेंशनभोक्ता बनकर रहने लगा। 1806 ई० में उसकी मृत्यु हुई।

शाहआलम के साथ ही मुगलों की वास्तविक सत्ता समाप्त हो गई। मुगल बादशाह नाम के बादशाह रहे, वास्तविक सत्ता अंग्रेजों के हाथों में चली गई। अंग्रेजों ने बादशाह को पेशन देकर सत्ता पर अधिकार कर लिया। अकबर द्वितीय (1806-37) और बहादुरशाह जफर (1837-57) नाममात्र के बादशाह बने रहे। 1857 ई० के विद्रोह के पश्चात् बहादुरशाह को गद्दी से उतारकर रंगून भेज दिया गया। वहीं 1862 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। भारत में मुगल सत्ता का स्थान अब ब्रिटिश ताज ने ले लिया। इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के साथ मुगल साम्राज्य के पतन और विघटन की जो प्रक्रिया आरम्भ हुई उसने अंतत: भारत से मुगलों की सत्ता ही समाप्त कर दी।

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