प्रथम मराठा युद्ध के कारण

प्रथम मराठा युद्ध के कारण
मराठा उत्तराधिकार का विवाद - माधव राव की मृत्यु के पश्चात् पेशवा के पद के लिए विवाद उत्पन्न हो गया। माधव राव की मृत्यु के बाद मराठा सरदारों में आपस में सत्ता के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो गया जिसने गृह-कलह का रूप धारण कर लिया। इसके दो कारण थे। पहला तो माधव राव के चाचा रघुनाथ राव या राघोबा की असीमित आकांक्षाएँ एवं दूसरे नए पेशवा नारायण राव की कमजोरी और अनुभवशून्यता। नारायण राव के पेशवा बनने के केवल नौ माह बाद राघोबा ने एक षड्यन्त्र द्वारा उसकी हत्या करवा दी, परन्तु फिर भी अपने लिए पेशवा का पद प्राप्त करने के लिए किए गए उसके समस्त प्रयत्न निष्फल हो गए। अत: वह 1755 ई० में सहायता प्राप्त करने के लिए मुंबई सरकार के पास पहुँचा। अंग्रेज पहले ही भारतीय शक्तियों को अपमानित करने के लिए चिन्तित थे अत: उन्होंने उसकी सहायता करना स्वीकार कर लिया

सूरत की सन्धि - यह सन्धि 1775 ई० में रघुनाथ राव और अंग्रेज अधिकारियों के बीच बम्बई में हुई। इस संधि की  पाँच धाराएँ थीं
  • अंग्रेज राघोबा को पेशवा का पद दिलाने के लिए उसे 2500 सैनिकों की एक सेना देंगे जिनका व्यय उसे देना होगा।
  • सालसती, बासीन तथा निकटवर्ती अन्य द्वीप अंग्रेजों को मिलेंगे।
  • मराठे भविष्य में बंगाल तथा कर्नाटक पर पुन: आक्रमण नहीं करेंगे। 
  • भड़ौच तथा सूरत के जिलों के कुछ भाग अंग्रेजों को दे दिए जाएंगे। 
  • राघोबा अंग्रेजों को मध्य में लिए बिना पूना के अधिकारियों से कोई सन्धि नहीं करेगा। 
यह संधि कलकत्ता के उच्च अंग्रेज अधिकारियों की स्वीकृति के बिना ही की गई थी। बम्बई के गवर्नर ने मराठों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी तथा कर्नल कीटिंग को राघोबा की सहायता के लिए भेज दिया गया।

युद्ध की प्रमुख घटनाएँ
अरास का युद्ध - कर्नल कोटिंग अपनी सेना के साथ रघुनाथ राव से जा मिला तथा संयुक्त सेनाएं पूना की ओर अग्रसर हुई। उन्होंने सालसती को विजित कर लिया जो कि मराठों ने 1739 ई० में पुर्तगालियों से छीना था। 1775 ई० में अरास के स्थान पर रघुनाथ राव के विरोधियों की पराजय हुई।

सूरत की संधि की अस्वीकृति - कलकत्ता के उच्च अधिकारियों ने बम्बई सरकार के इस कार्य की निन्दा की तथा इसे 'विवेकशून्य, हानिकारक, अवैध और अन्यायपूर्ण कहकर इसका तिरस्कार किया। वे चाहते थे कि अंग्रेजों को अभी विस्तारवादी नीति का अनुसरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने बम्बई सरकार को इस कार्य से विमुख होने की आज्ञा दी और लेफ्टीनेंट अपटन (Lt. Upton) को मराठों से सन्धि करने के लिए भेज दिया।

पुरन्दर की सन्धि - अपटन ने 1766 ई० में मराठों से एक सन्धि की जो पुरन्दर की संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस सन्धि के अनुसार निर्णय हुआ कि-
  • अंग्रेज राघोबा को सहायता नहीं देगे।
  • पेशवा सरकार उसे 25000  मासिक पेंशन देगी।
  • सालसती अंग्रेजों के अधीन ही रहेगा।
  • 'बारह भाई सभा' को पेशवा माधव राव नारायण की वैध संरक्षिका और प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया गया।

लन्दन से आदेश - लन्दन से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के डायरेक्टरों ने पुरन्दर की संधि की निन्दा की और बम्बई सरकार के कार्य की सराहना की। इससे प्रोत्साहित होकर बम्बई के गर्वनर ने अपनी गतिविधि पुनः प्रारम्भ कर दी। इसके अतिरिक्त एक फ्रांसीसी दूत सेंट ल्यूबन के पूना दरबार में पहुँचने और पेशवा के पुरन्दर की सन्धि की शर्तों को पूर्ण न करने से भी अंग्रेज कुपित हो गए। अत: 1778 ई० में कर्नल इगर्टन के अधीन 3300 सैनिको की एक सेना मराठों के विरुद्ध भेज दी गई।

वारगांव का सम्मेलन - कर्नल एगर्टन रुग्ण व्यक्ति था तथा भारत की परिस्थितियों से पूर्णत: अपरिचित था। अतः 1779 ई० में उसके स्थान पर कर्नल काकबर्न को नियुक्त किया गया। दोनों सेनाओं का पूना के निकट तेली गांव के स्थान पर सामना हो गया जिसमें अंग्रेजों की अपमानजनक पराजय हुई और वे वारगांव के लज्जाजनक सम्मेलन पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश हो गए। इस सम्मेलन की कुछ शर्तें थी
  • 1773 ई० के पश्चात् अंग्रेजों द्वारा मराठों के विजित किए गए प्रदेश मराठों को वापस कर दिए गए। 
  • बंगाल से आ रही अंग्रेजी सेना को रोक देने का निर्णय हुआ।
  • मराठा विजय के मुख्य पहलवान सिंधिया को भड़ौच से होने वाली आय का कुछ भाग मिलने का निर्णय हुआ। 
  • राघोबा तथा दो अंग्रेज - फॉर्मर (Former) तथा स्टीवर्ट (Stewart) को सिन्धिया के हवाले कर दिया गया।

सम्मेलन की विफलता - गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने इस सम्मेलन को अंग्रेजों के लिए एक कलंक समझा। कम्पनी की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने के लिए उसने युद्ध को पुनः आरम्भ कर दिया। उसने नागपुर के भोंसले और बड़ौदा के गायकवाड़ दोनों मराठा सरदारों को अपने साथ लिया और कैप्टन पौफम और जनरल गोडर्ड के अधीन दो फौजी टुकड़ियाँ 1780 ई० में मराठों के विरुद्ध भेजी।

जनरल गोडर्ड की पराजय - जनरल गोडर्ड ने सफलतापूर्वक मध्य भारत को पार किया तथा 1780 ई० में अहमदनगर और बसीन पर अधिकार कर लिया। 1781 ई० में वह पूना की ओर बढ़ा, परन्तु नाना फड़नवीस बहुत चालाक कूटनीतिज्ञ था तथा उसने हैदराबाद के निजाम और मैसूर के हैदर अली की सहायता से अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। गोडर्ड की पराजय हुई तथा उसे पीछे हटने पर विवश होना पड़ा।

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