ताम्र पाषाण काल और संस्कृति

ताम्र पाषाण काल और संस्कृति
ताम्र पाषाण कालीन संस्कृति
बिल दूरां के शब्दों में, “एक दृष्टि से मानव इतिहास का आधार आधुनिक युग में कृषि के स्थान पर उद्योग-धन्धों की उन्नति थी।" वास्तव में उद्योग-धन्धों के विकास की कहानी का जन्म उस समय हुआ जिस समय मनुष्य को अग्नि का ज्ञान हुआ था और वह धातु को पीटकर पिघला सकता था। धातु ज्ञान का यह युग नवपाषाण काल के पश्चात् प्रारम्भ होने वाला ताम्रपाषाण काल था। इसे ताम्रपाषाण काल इसलिए कहा जाता क्योंकि इस काल में मनुष्य ने पाषाण व ताम्र दोनों के ही उपकरण निर्मित किए। वास्तव में नवपाषाण युग समाप्त होते होते मानव को धातु का ज्ञान हो चुका था।

ताम्र पाषाण युग
आधुनिक अनुसंधान के आधार पर 1800 ई. पू. से 1000 ई. पू. या 800 ई. पू. तक का काल ताम्र पाषाण काल के नाम से जाना जाता है।

धातु क्रम सम्बन्धी धारणा
इस सम्बन्ध में सभी विद्वान सहमत है कि मानव ने धातु का प्रयोग नवपाषाण युग के अन्त तक प्रारम्भ कर दिया था, बी. एन. लूणिया के अनुसार, "भारतीय मानव ने पहले स्वर्ण का प्रयोग किया था।" परन्तु वर्तमान में अधिकांश इतिहासकार इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि भारतीय मानव ने पहले ताम्र का प्रयोग किया था।

भपाषाण की तुलना में ताम्र के अधिक प्रचलन के कारण
धातु ज्ञान हो जाने के उपरान्त पाषाण की तुलना में भारतीय मानव ने ताम्र का प्रयोग किया. इसके दो प्रमुख कारण थे।
  • पाषाण के अनुपात में तांबा अधिक लचीला, ठोस व मजबूत था। 
  • पत्थर के औजार टूटकर बेकार हो जाते थे जबकि तांवे के औजारों को टूटने पर दोबारा जोड़ा जा सकता था और इच्छानुसार तांबे की पतली चादरें भी निर्मित की जा सकती थीं। 

ताम्र पाषाण युग का पतन
यह ठीक है कि तांबा पत्थर की तुलना में लचीला व अधिक उपयोगी था. किन्त जैसे ही भारतीय मानव को टिन का ज्ञान हुआ उसने टिन व जस्ते को मिलाकर कांसे का निर्माण किया। कांसा तांबे के अनुपात में अधिक ठोस व कठोर होता है, अतः मानव को अत्यधिक कठोर कार्यों के लिए ताम्र के स्थान पर कांसा अधिक उपयोगी दिखाई देने लगा। फलतः उसने कांसे का प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया और यहीं से कांस्य युग का प्रारम्भ हुआ। अधिकांश इतिहासकारों ने कांसे के निर्माण को तत्कालीन महत्वपूर्ण रासायनिक ज्ञान कहा है।

ताम्र पाषाण संस्कृति के अवशेष स्थल
अत्यधिक खोजों से सिन्धु सभ्यता के अवशेष निम्नलिखित प्रमुख स्थानों से प्राप्त होते हैं।

  • महाराष्ट्र - महाराष्ट्र के जाखे, नेवासा, चदौली, नासिक तथा मोनागांव से अवशेष मिले हैं। 
  • दक्षिण - पूर्वी राजस्थान - यहां पर आहाड़ व गिलुण्ड इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। 
  • मध्य प्रदेश - यहां के एरण, कयथा महत्वपूर्ण स्थल हैं जहां से अवशेष मिले हैं। 
  • पूर्वी भारत - पूर्वी भारत के पांडुराजाढ़िवी, वीरभूम तथा गंगा तट के किनारे चिरांड नामक स्थान इस दृष्टि से उपयोगी हैं।

उपकरण - उपरोक्त स्थान से पत्थर व तांबे के निर्मित ताम्रपाषाणकालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनमें आयताकार तांबे कुल्हाड़ी, पहिएदार गाड़ियां, तलवार, तीर-कमान, भाले, कटार, तांबे की छैनियां आदि प्राप्त हुई हैं। प्रस्तर के उपकरणों में फलक महत्वपूर्ण हैं। उपरोक्त उपकरणों को पिगट महोदय ने 5 भागों में विभक्त किया है। एक तथ्य यह भी उल्लेखनीय है कि हीन-गेल्डर्न भारत में प्राप्त इन ताम्र उपकरणों की कला को विदेशी मानते हैं। उनके अनुसार, “पहले यह सामग्री ईरान, काकेशस प्रदेश, डेन्यूब घाटी में 1200 ई. पू. के लगभग विद्यमान थी, क्योंकि आर्य इन्हीं प्रदेशों से होते हुए भारत आए थे यह उन्हीं की देन है।" परन्तु हीन-गेल्डर्न के मत को वर्तमान में स्वीकार नहीं किया जाता है।

ताम्र पाषाण संस्कृति की व्यवस्था
  • उपकरण व हथियार - उत्खनन से प्राप्त हुए उपकरण व हथियारों के आधार पर कहा जा सकता है कि ताम्रपाषाण कालीन मानव ने प्रस्तर व ताम्र दोनों के उपकरण निर्मित किए थे, उपकरण लघु थे अतः अधिकांश इतिहासकार इस काल को लघु पाषाण काल की संज्ञा देते हैं।
  • कृषि - ताम्रपाषाण काल में भारतीय मानव ने हल का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया था, चावल, गेहूं, बाजरा, उड़द, कृषि के क्षेत्र में प्रमुख उत्पादन थे।
  • पशुपालन - कृषि विकास ने पशुपालन को प्रोत्साहित किया। इस युग में गाय, बकरी, बैल, ऊंट, गधा पालतू पशु थे। इन पशुओं में बैल, ऊंट व गधे को सामान ढोने के काम में भी लाया जाता था। 
  • मिट्टी के बर्तन - उत्खनन से प्राप्त मृद्भाण्डों - प्यालों तश्तरियों, घड़ों, आदि से स्पष्ट होता है कि ताम्रपाषाण कालीन भारतीय मानव मिट्टी के बर्तन बनाता था। नवपाषाण काल की तुलना में ये अधिक परिष्कृत व सुडौल थे। इन बर्तनों में पशु-पक्षियों व फूल-पत्तियों के चित्र भी मिलते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि चित्रकारी की कला भी विकसित होने लगी थी।
  • प्रमुख व्यवसाय व व्यापार एवं यातायात - ताम्र पाषाण कालीन भारतीय मानव का प्रमुख व्यवसाय कृषि, पशुपालन, सूत कातना, कपड़ा बुनना था। जहां तक व्यापार का सम्बन्ध है, व्यापार वस्तु विनिमय के द्वारा के होता था। पहिएदार गाड़ी व नाव यातायात के प्रमुख साधन थे।
  • गृह-निर्माण - डॉ. एच. एन. साकलिया ने महाराष्ट्र में नेवासा नामक स्थान पर हुए उत्खनन से प्राप्त ताम्र पाषाण कालीन संस्कृति के अवशेषों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि इस काल में मानव घास-फूस की झोपड़ियों में निवास करने लगा था। यह भी उल्लेखनीय है कि ग्राम नामक इकाई का भी विकास इस काल की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। आज भी ग्रामनामक इकाई सम्पूर्ण भारत में अपना अस्तित्व बनाए हुए है।
  • धर्म - (1) प्राकृतिक शक्तियों की पूजा - उत्खनन से प्राप्त अवशेषों के आधार पर अधिकांश विद्वानों की धारणा है कि इस काल में मानव प्राकृतिक शक्तियों की उपासना करने लगा था। 
(2) अन्धविश्वास - उत्खनन से प्राप्त ताबीज व मोहरों पर पशु-चित्र अंकित होने से यह स्पष्ट होता है कि इस काल का मानव जादू टोने में विश्वास करता था।

(3) मातृदेवी की उपासना - इस काल की प्राप्त स्त्रियों की लघु मृण्मूर्तियों के आधार पर अधिकांश इतिहासकार इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इस काल का मानव मातृदेवी की उपासना करता था।

(4) अन्त्येष्टि संस्कार - ताम्रपाषाणकालीन अधिकांश कब्रों में मानव के अस्थिपंजर प्राप्त हुए हैं। इन अस्थिपंजरों के शीर्ष में मिट्टी के बर्तन या ताम्र के उपकरण मिले हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इस काल का मानव मृत व्यक्ति को गाड़कर उसका अन्त्येष्टि संस्कार करता था।

(5) परलोकवाद में विश्वास - कब्रों में मिट्टी के बर्तन व ताम्र के उपकरण मिलना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि तत्कालीन भारतीय मानव परलोकवाद में विश्वास करने लगा था।

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