सामाजिक परिवर्तन क्या है
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ
सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक घटना है। यह समाजशास्त्र की एक प्रमुख विषय-वस्तु है। यद्यपि सामान्य रूप से यह माना जा सकता है कि समाज या उसके किसी पक्ष में एक समय-अन्तराल में जो भिन्नता आयेगी, वह सामाजिक परिवर्तन है तथापि विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने अध्ययन करके, सामाजिक परिवर्तन को परिभाषित किया है। जहाँ मैकाइवर और पेज ने सामाजिक सम्बन्धों में होने वाले व्यापक परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन माना है। वहीं किंग्सले डेविस ने सामाजिक संरचना और प्रकार्यों में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन माना है। इसकी दो परिभाषाएँ निम्न हैं
1. मैकाइवर और पेज - “समाजशास्त्री होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष सम्बन्ध, सामाजिक सम्बन्धों से है, जो परिवर्तन इनमें होता है, केवल उसी को सामाजिक परिवर्तन कहेंगे।''
2. किंग्सले डेविस - “सामाजिक परिवर्तन से हमारा तात्पर्य उन परिवर्तनों से है जो सामाजिक संगठन में अर्थात्स माज की रचना और कार्यों में होते हैं।”
संक्षेप में, सामाजिक परिवर्तन का अभिप्राय समाज की संरचना, संगठन, सामाजिक सम्बन्धों तथा समाज के किसी भी भाग में होने वाले सामान्य परिवर्तनों से है।
संक्षेप में, सामाजिक परिवर्तन का अभिप्राय समाज की संरचना, संगठन, सामाजिक सम्बन्धों तथा समाज के किसी भी भाग में होने वाले सामान्य परिवर्तनों से है।
सामाजिक परिवर्तन की विशेषता
- सामाजिक परिवर्तन सार्वभौमिक है।
- सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य है।
- सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है।
- सामाजिक परिवर्तन की गति तुलनात्मक है।
- सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी सम्भव नहीं है।
- सामाजिक परिवर्तन एक सामाजिक धारणा है।
सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति
- सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य नियम है।
- यह सामुदायिक परिवर्तन होता है।
- यह तुलनात्मक धारणा है।
- सामाजिक परिवर्तन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
- सामाजिक परिवर्तन सार्वभौमिक है।
- सामाजिक परिवर्तन एक जटिल तथ्य है।
- सामाजिक परिवर्तन एक तटस्थ अवधारणा है।
- सामाजिक परिवर्तन चक्रवत तथा रेखीय रूप में होता है।
सामाजिक परिवर्तन का रेखीय प्रतिमान
मैकाइवर और पेज ने सामाजिक परिवर्तन के जिन तीन प्रतिमानों का विवरण रेखीय प्रतिमान उनमें से एक है। यह सामाजिक परिवर्तन का वह स्वरूप है जो कि सिलसिले से क्रम विकास की ओर एक दिशा में निरन्तर बढ़ता जाता है। उदाहरण के लिए, एक नवीन आविष्कार समाज में न केवल एकाएक परिवर्तन लाता है बल्कि अनेक आगामी परिवर्तनों का एक सिलसिला भी उत्पन्न कर देता है। टेलीफोन, भाप से चलने वाले इंजन, रेडियो, छापाखाना, इत्यादि के आविष्कार के बाद परिवर्तन का जो सिलसिला चला है उससे हम परिचित है। इस प्रकार परिवर्तन की एक निश्चित दिशा में बढ़ने सम्बन्धी प्रकृति रेखीय प्रतिमान की सूचक है। ऐसे परिवर्तन रेखीय परिवर्तन कहे जा सकते हैं। पहिये के आविष्कार के बाद बैलगाड़ी पुनः इक्का, ताँगा फिर साइकिल, बस, रेलगाड़ी और जहाज रेखीय प्रतिमान का अच्छा उदाहरण है।
सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमान
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया निरन्तर रूप से चलती है, अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस परिवर्तन की दिशा अथवा प्रतिमान क्या है? निम्नलिखित विवेचना में हम सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमानों का उल्लेख करेंगे
प्रथम प्रतिमान
रेखीय परिवर्तन - इस प्रकार के प्रतिमान में सामाजिक परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है, वहाँ से आगे बढ़ता जाता है, पीछे लौटकर उस स्थान पर कभी नहीं आता, अर्थात् समाज में पूर्व परिवर्तन की पुनरावृत्ति नहीं होती। इस प्रकार के प्रतिमान में समाज कुछ निश्चित उद्देश्य की ओर निरन्तर अग्रसर होता रहता है। सामाजिक परिवर्तन के ये उददेश्य तथा लक्ष्य पहले से ही निश्चित होते हैं। ये लक्ष्य प्रकृति, भाग्य अथवा ईश्वर द्वारा पूर्व निश्चित होते हैं। 19वीं शताब्दी में जीव के क्रमिक विकास को, जिसमें डार्विन और मेण्डल के सिद्धान्त प्रमुख हैं, इसी प्रकार के सामाजिक परिवर्तन की श्रेणी में रखा जा सकता है।
द्वितीय प्रतिमान
उतार-चढ़ावदार परिवर्तन - परिवर्तन का दूसरा प्रतिमान उतार-चढ़ावदार होता है। इस प्रकार के प्रतिमान में परिवर्तन की प्रवृत्ति निरन्तर एक ही दिशा मे आगे की ओर बढ़ने की बजाय ऊपर-नीचे जाने की होती है। इस द्वितीय प्रतिमान में परिवर्तनों की दिशा ऊपर से नीचे की ओर, फिर नीचे से ऊपर की ओर अथवा पहले नीचे से ऊपर की ओर तथा ऊपर से नीचे की ओर होती है। अत: इन परिवर्तनों को उतार चढ़ावदार परिवर्तन कहते हैं। आर्थिक क्षेत्र तथा जनसंख्या के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन को हम इस प्रकार के प्रतिमान के अन्तर्गत रख सकते हैं। कोई समाज किसी समय में आर्थिक दृष्टिकोण से विकसित होता है, जबकि किसी समय में उसकी स्थिति खराब हो जाती है। जनसंख्या के क्षेत्र में भी इसी प्रकार के परिवर्तन देखने को मिलते हैं। जैसे जन्म दर में वृद्धि हो जाने पर हो जाने पर जनसंख्या का घनत्व घट जाता है। राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भी इसी प्रकार के प्रतिमान दृष्टिगोचर होते हैं।
ततीय प्रतिमान
तरंगीय या लहरदार परिवर्तन - द्वितीय प्रकार के परिवर्तन के न ततीय प्रकार का परिवर्तन है। इन दोनों में अन्तर केवल इतना है कि द्वितीय प्रतिमान वर्तन की दिशा एक सीमा के बाद विपरीत दिशा की ओर मुड़ जाती है और इस विपरीत धान अथवा रूप को हम निश्चित रूप से देख सकते हैं। जबकि तीसरे प्रकार के प्रतिमान में, लहरों की तरह एक के बाद दूसरा परिवर्तन आता रहता है और यह नहीं कहा जा सकता है कि टपरी लहर पहली लहर के विपरीत है या दूसरा परिवर्तन प्रथम के सन्दर्भ में हास अथवा प्रगति का सचक है। इसलिए तृतीय प्रतिमान को तरंगीय परिवर्तन के नाम से सम्बोधित किया जाता है।
उदाहरण - समाज में नये-नये फैशनों की तरंग या लहर आती रहती है, जिसमें पतन अथवा प्रगति की कोई बात कहना कठिन है।
चतुर्थ प्रतिमान
चक्रीय परिवर्तन - इस प्रतिमान के अनुसार सामाजिक परिवर्तन की पुनरावृत्ति होती रहती है। यह सिद्धान्त यह बताता है कि समाज का परिवर्तन चक्र के रूप में होता है। जिस प्रकार दिन के बाद रात, गर्मी के बाद बरसात, सर्दी, शैशव के बाद यौवन आता है, उसी प्रकार सामाजिक जीवन में भी बचपन, यौवन, वृद्धावस्था आती रहती है और अन्तिम अवस्था तक पहुँचकर एक चक्र पूरा हो जाता है तथा फिर समाज अपनी पहली अवस्था पर आ जाता है। चक्रीय परिवर्तन की घड़ी के पेण्डुलम से तुलना की गयी है। जिस प्रकार घड़ी की सुई आगे बढ़ती जाती है। समय परिवर्तन होता जाता है, परन्तु पुन: अपने पूर्व स्थान पर आ जाती है तथा इस प्रकार यह चक्र के रूप में पुनरावृत्ति की प्रक्रिया गति में चलती रहती है।
सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्रोत
1. मानसिक विकास - जनता के मानसिक विकास का साधन शिक्षा है। शिक्षण संस्थाओं का प्रसार जिस स्थान पर प्रचुर मात्रा में होगा, उस स्थान के व्यक्ति प्रबुद्ध एवं विचारशील होंगे और वे समाज में प्रचलित संकीर्णताओं व रूढ़ियों की उपेक्षा करने में संकोच नहीं करेगे अपितु उनके स्थान पर नवीन विचारों को लाने का भरसक प्रयास करेंगे।
2. पारिवारिक पर्यावरण - परिवार सामाजिकता की प्रथम पाठशाला है। परिवार में यदि शिक्षित तथा प्रबुद्ध व्यक्तियों की संख्या अधिक हो तो परिवार में संकीर्ण विचारों का कोई भी स्थान नहीं रहेगा। प्रबुद्ध व्यक्ति प्राचीन परम्पराओं में समयानुसार परिवर्तन करते रहते हैं। इसलिए जिस समाज में प्रबुद्ध व्यक्ति प्राचीन परम्पराओं में समयानुसार परिवर्तन करते रहते हैं। इसलिए जिस समाज में प्रबुद्ध एवं शिक्षित परिवारों की संख्या अधिक होगी, उस समार परिवर्तन की गति भी तीव्र रहेगी।
3. समाज सुधारकों के प्रयास - समाज सुधारक सामाजिक कुरीतियों में परिवर्तन लाने के लिए जनमत का निर्माण करते हैं तथा जनता में सामाजिक बुराइयों के विरोध में जागृति लाने का प्रयास करते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी जै समाज सुधारकों ने अपने अथक प्रयासों से भारत के सामाजिक जीवन के स्वरूप को बदल है। अतएवं सभी देशों में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया समाज सुधारकों के प्रयासों द्वारा निरन्तर अविरल गति से चलती रहती है।
3. समाज सुधारकों के प्रयास - समाज सुधारक सामाजिक कुरीतियों में परिवर्तन लाने के लिए जनमत का निर्माण करते हैं तथा जनता में सामाजिक बुराइयों के विरोध में जागृति लाने का प्रयास करते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी जै समाज सुधारकों ने अपने अथक प्रयासों से भारत के सामाजिक जीवन के स्वरूप को बदल है। अतएवं सभी देशों में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया समाज सुधारकों के प्रयासों द्वारा निरन्तर अविरल गति से चलती रहती है।
4. ज्ञान प्रसार के साधन - वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण जिस समाज में समाचार-पत्रों, रेडियो, यातायात के साधनों तथा संचार-वाहन के साधनों की प्रचरता होगी, वह समाज सामाजिक परिवर्तन का उतना ही शीघ्र स्वागत करेगा। इन साधनों की प्रचुरता के कारण देश में नवीन विचारधाराओं का प्रसार सरलता से हो सकता है और सामाजिक परिवर्तन की सम्भावना अधिक होती है।
5. साधनों की प्रचुरता - सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत साधनों की प्रचुरता है। जिस देश की आर्थिक दशा अच्छी हो और उसमें प्रकृति की अनुकम्पा से खनिज पदार्थों का भी बाहुल्य हो तो वह देश औद्योगिक क्षेत्र में विकसित होगा। उद्योग-धन्धों का विकास हो जाने से जाति-पाति के बन्धन ढीले पड़ेंगे तथा संयुक्त परिवार टूटने लगेंगे। पारिवारिक प्रतिमानों में परिवर्तन होगा। संक्षेप में, साधनों की प्रचुरता सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन देती है।
6. वैज्ञानिक आविष्कार - वैज्ञानिक आविष्कार परिवर्तन के मूल तत्व है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण जनता का दृष्टिकोण तार्किक हो जाता है। तर्क के आधार पर प्राचीन मान्यताओं का खण्डन किया जाने लगता है वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण विभिन्न संस्कृतियों का अदान-प्रदान भी सम्भव हो गया है। आज भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव इन वैज्ञानिक आविष्कारों की ही देन है।
सामाजिक परिवर्तन की तुलनात्मक धारणा
किसी समाज विशेष में परिवर्तन हो रहा है अथवा नहीं, यह बात उस समाज की अन्य समाजों से तुलना करने पर ही जानी जा सकती है। दूसरे शब्दों में, अन्य समाजों की प्रगति या अवनति की तुलना जब हम अपने समाज से करते हैं तभी हमें यह मालूम होता है कि हमारा समाज प्रगति कर रहा है या अवनति। उदाहरण के लिये, यदि हम अमेरिका के समाज से अपने समाज की तुलना करें तो ज्ञात होगा कि हमारा समाज अमेरिका के समाज से बहत पिछड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त एक ही समाज के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन की गति एक-सी नहीं होती। आधुनिक समाज एक गतिशील समाज है, क्योंकि इसमें बड़ी तीव्र गति से परिवर्तन आउरे हैं जबकि प्राचीन समाज अपेक्षाकृत स्थिर है तथा उसमें परिवर्तन की गति बड़ी धीमी थी। अना कह सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन की धारणा तुलनात्मक है।
सामाजिक परिवर्तन के प्रकार
- सामाजिक परिवर्तन की उविकासवासी प्रक्रिया,
- प्रगति के रूप में सामाजिक परिवर्तन,
- विकास अथवा उन्नति के रूप में सामाजिक परिवर्तन,
- सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा सामाजिक परिवर्तन,
- क्रान्ति के रूप में सामाजिक परिवर्तन,
आर्थिक कारक एवं सामाजिक परिवर्तन
सामाजिक परिवर्तन का आर्थिक कारण भी प्रमुख है। कार्ल माक्र्स का मत है-“व्यवसाय चक्र, वर्ग-संघर्ष, व्यवसाय प्रकृति, सम्पत्ति वितरण आदि के कारण सामाजिक परिवर्तन होते हैं। भारतीय समाज एक आर्थिक, सामाजिक इकाई है। यदि ग्रामों में कृषि सम्बन्धी आर्थिक क्रियाएँ समाप्त कर दी जाए तो वहाँ का समाज कुछ भी नहीं रहेगा। कषि का प्रभाव ग्रामीण सामाजिक जीवन पर चहुंमुखी रूप में पड़ता है। इसी प्रकार नगरीय समाज की आर्थिक संस्थाएँ भी सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करती है। कार्ल मार्क्स एवं उनके अनयायियों का यहाँ तक कहना है कि सामाजिक परिवर्तनों का कारण एक निश्चयात्मक कारक, आर्थिक, जैसे—एक समाज का व्यवसाय कृषि है। यदि वह कृषि को छोड़कर औद्योगीकरण की ओर बढ़े तो अवश्य ही उस समय में परिवर्तन ही जायेगा। इसके अतिरिक्त आर्थिक परिस्थितियाँ ही राजनैतिक अस्थिरता, उथल-पुथल, आतंक, क्रान्ति एवं युद्धों को जन्म देती है। इस सन्दर्भ में लिखते हैं—“इसमें सन्देह नहीं कि आर्थिक कारक सामाजिक परिवर्तन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी समाज की आर्थिक परिस्थिति में परिवर्तन आता है तो निश्चय ही उस समाज की संरचना बदल जायेगी और एक नयी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है।
जनसंख्यात्मक कारक और सामाजिक परिवर्तन
अनेक विद्वानों ने समाज में परिवर्तन लाने के सम्बन्ध में जनसंख्यात्मक महत्त्व दिया है, उनका मानना है कि सामाजिक संरचना या व्यापक सामाजिक सम्बन्धों के वाले परिवर्तनों के लिए जनसंख्यात्मक कारण उत्तरदायी है। उदाहरण के लिए, यदि माल्थस सिद्धान्तं को भारतीय समाज पर लागू किया जाये तो कहा जा सकता है कि यदि किसी रा. समाज की बढ़ती हुई जनसंख्या को न रोका गया तो खाद्य पदार्थों के सीमित मात्रा में बढ़ने से असन्तुलन हो जायेगा व उस असन्तुलन की पूर्ति विभिन्न प्रतिरोधों के द्वारा होगी। ये सभी महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन जनसंख्यात्मक कारकों से ही घटित होते हैं। जनसंख्या का आकार, जनसंख्या का घनत्व, जन्म-दर व मृत्यु दर, जनसंख्या का संघटन जिसमें आयु-समूह, लिंग समूह व वैवाहिक स्थिति शामिल है, एवं जनसंख्या का गतिशील पहलू जिसे पलायन कहा जाता है, इत्यादि समाज में विभिन्न प्रकार के सामाजिक परिवर्तन लाते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के जनसंख्यात्मक कारक
सामाजिक परिवर्तन लाने में जनसंख्यात्मक कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण है। अनेक विद्वानों जैसे माल्थस, प्लेटो, अरस्तू, चाणक्य, सिसरो, एडमस्मिथ, एडोल्फ कॉम्टे आदि ने जनसंख्या का अध्ययन कर सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है।
जनंसख्यात्मक कारक का अर्थ एवं परिभाषा
1. सोरोकिन के अनुसार - “जनसंख्यात्मक कारक से तात्पर्य जनसंख्या के आकार तथा घनत्व में वृद्धि तथा ह्रास से है।”2. हाउजर और डंकन के अनुसार - “जनांकिकी, जनसंख्या के आकार, भौगोलिक वितरण, संगठन, एवं उसमें परिवर्तन और इन परिवर्तनों के भाग जो जन्म-दर, मृत्यु-दर, प्रादेशिक गमन एवं सामाजिक गतिशीलता (स्तर में परिवर्तन) के रूप में जाने जाते हैं, का अध्ययन करती है।”
इस प्रकार जनसंख्यात्मक कारकों में हम जनसंख्या के गुणात्मक पक्षों का अध्ययन ने करके उसके सांख्यिकीय पक्षों; जैसे-जन्म-दर, मृत्यु-दर, आवास की दर, स्त्री-पुरुष का आयु अनुमान आदि का अध्ययन करते हैं।
मानव जनसंख्या सामाजिक व्यवस्था के अभाव में जीवित नहीं रह सकती जनसंख्यात्मक कारक यदि समाज को प्रभावित करते हैं। तो स्वयं समाज से प्रभावित भी होते हैं। इस प्रकार जनसंख्यात्मक कारक सामाजिक परिवर्तन के महत्त्वपूर्ण कारण है।
सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिक कारक
प्रौद्योगिकी सामाजिक परिवर्तन का मानव निर्मित कारक है। वर्तमान युग वैज्ञानिक युग है और विज्ञान में हो, रहे तीव्र और नवीन आविष्कारों ने सामाजिक परिवर्तन की तीव्रता में वृद्धि की है। यदि यह कहा जाय कि पिछली कुछ शताब्दियों से सामाजिक परिवर्तन ये महत्वपूर्ण कारक प्रौद्योगिकी ही है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं।विज्ञान में हो रहे आविष्कारों से यन्त्रीकरण बढ़ा है, यन्त्रीकरण से उत्पादन प्रणाली टली है। उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन आने से सामाजिक सम्बन्ध, प्रस्थिति और भूमिकाएँ लने से सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना में परिवर्तन आ जाता है और यहीं सामाजिक परिवर्तन है।
प्रौद्योगिकी का अर्थ एवं परिभाषाएँ
प्रौद्योगिकी का सामान्य अर्थ उन प्रविधियों से है, जिनका ज्ञान प्राप्त कर मानव अपनी भौतिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ प्राप्त करते हैं।1. कार्ल मार्क्स के अनुसार, “प्रौद्योगिकी प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार करने के ढंग तथा उत्पादन करने के उस तरीके को व्यक्त करती है जिसके द्वारा वह अपने अस्तित्व की रक्षा करता है, इसी पर व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्धों तथा मानसिक धारणाओं का रूप, निर्धारित होता है।''
2. क्लार्क विसलर के अनुसार, प्रौद्योगिकी एक सामान्य शब्द है जिसके अन्तर्गत उपकरणों के प्रयोग द्वारा वस्तुओं को बनाने की सम्पूर्ण यान्त्रिक प्रक्रियाएँ शामिल हैं।'
सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक
वर्तमान युग में सामाजिक परिवर्तन का आर्थिक कारक बहुत महत्वपूर्ण है। सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक सम्बन्धी अध्ययन की ऐतिहासिकता में जाने से ज्ञात होता है कि काफी पहले प्लेटो और चीनी विद्वानों ने सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में आर्थिक कारकों के योगदान का उल्लेख किया था किन्तु सामाजिक परिवर्तन की व्यवस्थित, आर्थिक-व्याख्या करने का श्रेय कार्ल मार्क्स को जाता है। । मार्क्स का मानना है कि जब से मानव को अपने अस्तित्व का ज्ञान हुआ तब से जीवन में आर्थिक पक्ष महत्वपूर्ण हो गया। जब से मानव ने भोजन को प्राप्त करने के लिए काम करना शुरू किया, जीवन में भोजन या खाद्यान्न के उत्पादन और वितरण सम्बन्धी कारणों का महत्व बढ़ गया। मार्क्स के अनसार प्रत्येक समाज आर्थिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। ये समाधान ही उस समाज के आदर्श बन जाते हैं और इन आदर्शों में परिवर्तन होने से समाज के ताने-बाने में परिवर्तन हो जाता है। आर्थिक कारकों का तात्पर्य मुख्यतः उपभोग की प्रकृति दिन का स्वरूप, वितरण की व्यवस्था, आर्थिक नीतियाँ, औद्योगीकरण, श्रम-विभाजन और आर्थिक प्रतिस्पर्धा से है। ये सब आर्थिक कारक समाज को अनेक प्रकार से प्रभावित और परिवर्तित करते हैं।
आर्थिक कारकों द्वारा होने वाले सामाजिक परिवर्तन
- सामाजिक संस्थाओं की संख्याओं में वृद्धि होती है, जैसे-विद्यालय, अस्पताल, बैंको आदि की स्थापना होती है।
- आर्थिक विकास से शिक्षा का प्रसार होता है जिससे समाज में जागरूकता बढती है तथा अन्धविश्वास एवं कुरीतियाँ नष्ट होने लगती हैं।
- आर्थिक कारक आविष्कार एवं नवीन खोजों को भी प्रभावित करते हैं जिससे धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तन होते हैं।
- राजनीतिक दलों की अलग-अलग आर्थिक नीतियाँ सत्ता परिवर्तन का कारण बनती | हैं जिससे समाज भी प्रभावित होता है।।
- आर्थिक कारक जनसंख्या के आकार एवं स्वरूप का भी निर्धारण करते हैं। आर्थिक विकास से जनसंख्या का आकार बढ़ता है तथा व्यक्तियों में शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का भी विकास होता है।
- आर्थिक कारक व्यक्तियों के स्थान परिवर्तन के लिये भी उत्तरदायी होते हैं जिससे समाज बदलता है।
- आर्थिक कारक किसी स्थान की जन्म-दर एवं मृत्यु-दर को प्रभावित करते हैं जिससे जनसंख्या का आकार भी प्रभावित होता है।
- आर्थिक पिछड़ापन मुख्यत: व्यक्तियों के असन्तोष, अशान्ति एवं दु:खों का कारण होता है। जिससे समाज में अपराध पनपते हैं।
सामाजिक उविकास का अर्थ
सामाजिक उविकास सामाजिक परिवर्तन का एक प्रमुख स्वरूप है। उविकास परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु के आन्तरिक तत्त्व अपने आप प्रकट होकर उस वस्तु का रूप बदल देते हैं। इस प्रकार उविकास एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सरल वस्तु जटिलता की ओर जाती है और धीरे-धीरे वस्तु का बाह्य स्वरूप ही बदल जाता है। ‘उविकास' शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर Evolution है। ‘इवोल्यूशन' शब्द लैटिन भाषा के शब्द Evolvere से लिया गया है। Evolvere शब्द के अक्षर E का अर्थ है ‘बाहर की ओर' तथा Volvere शब्द का अर्थ है ‘फैलना'। इस प्रकार Evolvere शब्द का अर्थ “बाहर की ओर फैलना हुआ। इसी से ‘उविकास' का अर्थ हुआ आन्तरिक शक्तियों का बाहर की ओर फैलना। ‘उविकास' शब्द की व्याख्या करते हुए समाजशास्त्रियों ने कहा है कि जब आन्तरिक गुण बाहर की ओर प्रकट होने लगते हैं तो किसी वस्तु का उविकास होता है। इस प्रकार, उविकास होने पर वस्तु के स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है। | उविकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी वस्तु के भीतर छिपे हुए या अस्पष्ट पहलू या विशेषताएँ अपने आप को प्रकट करती हैं। यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें परिवर्तित हुई वस्तु के आन्तरिक पहलू स्पष्टत: दृष्टिगोचर होने लगते हैं और उनको एक विशिष्ट दिशा में प्रस्फुटित होते हुए देखा जा सकता है। सामाजिक दृष्टि से उविकास समाज के सदस्यों (व्यक्तियों) के आन्तरिक गुणों का बाह्य रूप में प्रकट होना है। यह सरलता से जटिलता की ओर ले जाने वाली एक प्रमुख प्रक्रिया है। हॉबहाउस के अनुसार-“उविकास से तात्पर्य किसी भी प्रकार की वृद्धि से है।''
सामाजिक उविकास की परिभाषा
विकास परिवर्तन की एक चिरन्तर प्रक्रिया है, जिसके तत्व विकसित होने वाली वस्त में ही पहले निहित रहते हैं। उदाहरण के लिए पौधा जब बढ़ता है ते उस वृद्धि के तत्व पौधे में पहले से निश्चित रहते हैं। ठीक इसी प्रकार मनुष्य के शारीरिक अवयव भी वि रहते हैं। एक स्तर के पश्चात् क्रमशः द्वितीय स्तर प्रकट होते रहते हैं। अतएव उदविका तात्पर्य उस क्रमागत परिवर्तन से है जिसका एक स्तर, दूसरे से जुड़ा रहता है और एक स्तर के बाद दूसरे स्तर के लक्षण धीरे-धीरे प्रकट होते हैं। इसके स्पष्टीकरण के लिए निम्नलिखित परिभाषाओं का उल्लेख करना आवश्यक है1. मैकाइवर और पेज - “सामाजिक उविकास वह प्रक्रिया है जिसमें निहित लक्षण अपने को धीरे-धीरे प्रकट करते हैं। संरचनात्मक विभेदीकरण की दृष्टि से यह एक गुणात्मक प्रक्रिया है। इसमें गुण या लक्षण आन्तरिक प्रक्रिया से प्रकट होते हैं, न कि बाह्य प्रक्रिया से।”
2. गिन्सबर्ग - “उविकास परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जो किसी वस्तु में नवीनता पैदा करती है और संक्रमण को निरन्तरता में व्यक्त करती है।”
3. जिस्बर्ट - “सामाजिक उविकास, समाज में विजय व स्थिरता के साथ-साथ मनुष्य का विकास है।''
4. आगबर्न और निमकॉफ - “उविकास एक निश्चित दिशा में होने वाला परिवर्तन है"
सामाजिक उदविकास के कारक
सामाजिक उविकास क्यों होता है? ऐसे कौन से कारक है जिनसे सामाजिक उविकास होता है? सामाजिक उविकास के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं है समाज के अनेक तत्त्व उविकास में योगदान देते हैं। ऑगबर्न ने सामाजिक उविकास के चार कारण बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं1. आविष्कार - सामाजिक परिवर्तन के कारकों में प्रौद्योगिकी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण द्योगिकी में आविष्कार और नवीनता को सम्मिलित किया जाता है। आविष्कार समय की त हैं और व्यक्ति की मानसिक योग्यता पर आधारित होते हैं इसके साथ ही आवश्यकता विष्कार की जननी होती है। जिस समाज के व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहेगे, उस समाज का उविकास अधिक होगा।
2. संचय - संचय का अर्थ है बचाना। सामाजिक उविकास के लिए संचय का तत्व सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और इसके अभाव में सामाजिक उविकास की कल्पना नहीं जा सकती है। पुराने तत्त्वों के संचय से नये तत्त्वों का उविकास होता हैं। उविकास के लिए पहले साइकिल बनी, इसके बाद मोटर और फिर वायुयान। उविकास में कोई ऐसा समाज नहीं है जहाँ पहले वायुयान का निर्माण हुआ हो, उसके बाद साइकिल और फिर मोटर का निर्माण हुआ हो। उविकास पुरानी वस्तु की प्रतिक्रिया या सुधार के परिणामस्वरूप होता है।
3. प्रसार - प्रसार का अर्थ है फैलना। तालाब में एक कंकड़ फेंकिए वहाँ से लहरें उठेगे और ये लहरे वहाँ तक चली जायेंगी जहाँ तक किनारा होता है। इसी प्रकार आविष्कारों वह समाज में प्रसार होता है। एक देश या समाज का आविष्कार सम्पूर्ण विश्व में धीरे-धीरे फैल जाता है। प्रसार के द्वारा भी सामाजिक उविकास को गति मिलती है
4. सामंजस्य - समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है और एक-दूसरे से सम्बन्धि है। यदि एक भाग में परिवर्तन होता है तो उसका प्रभाव दूसरे भाग पर भी पड़ता है। संस्कृतिय आपस में मिलती हैं। आवागमन और संचार के साधनों के विकास के कारण सांस्कृतिक सामंजस्य आसानी से होता है। जब दो संस्कृतियाँ मिलती हैं तो प्राथमिक अवस्था में कुछ संघा होता है। यह संघर्ष बड़ा ही क्षणिक और अस्थायी होता है। बाद में दोनों संस्कृतियों में सांमजस हो जाता है और इस प्रकार सामाजिक उविकास होता रहता है।

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